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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती मरणकाले भवान्तरसङक्रमे, मुक्तानां चोर्ध्वगमनकालेऽनुश्रेण्येव गतिर्भवति । तथोललोकादधोगतिः, अधोलोकादूर्ध्वगतिः, तिर्यग्लोकादूर्ध्वमधो वा गतिः संसारिणामनुश्रण्येव जायते । पुद्गलानां च या लोकान्तप्रापणी गतिः सानुश्रेण्येव भवतीति कालदेशनियमोऽत्र योजनीयः इतरगतिषु नियमोऽयं नास्ति । मुक्तात्मनो गतिविशेषकथनार्थमाह
अविग्रहा जीवस्य ॥ २७ ॥ विग्रहः कौटिल्यं वक्रतेत्यनर्थान्तरम् । न विद्यते विग्रहो यस्या गतेरसावविग्रहा। जीववचनात्पुद्गलनिवृत्तिः । उत्तरसूत्रे संसारिग्रहणादिह मुक्तस्येति लभ्यते । ततो मुक्तस्य जीवस्य या गतिरालोकान्तात् सा नियमादृज्वी भवतीति प्रत्येतव्यम् । संसारिणः कीदृशी गतिरित्याह
___ भावार्थ-जब यह जीव मरकर दूसरी गति में-भव में जाता है तब वह नियम से आकाश प्रदेशों की पंक्ति के अनुसार ही जावेगा तथा पुद्गल के परमाणु की लोक के अन्त तक अर्थात् लोकाकाश के अधोभाग से ऊर्श्वभाग तक चौदह राजू प्रमाण जगह एक समय में आकाश प्रदेशों के अनुसार गति होती है, यह तो अनुश्रेणि गति है। विग्रह गति को छोड़कर अन्य समय में जीवके अनेक प्रकार से बिना अनुश्रेणि के टेडी मेडी तिरछी गति होती है तथा पुद्गलों की भी बिना श्रेणि गति होती है । भाव यह है कि जीव का या पुद्गलों का गमन हमेशा श्रेणि के अनुसार नहीं होता किन्तु उक्त देश और समय में अनुश्रेणि गति होती है ।
मुक्त जीवों की गति विशेष का प्रतिपादन करते हैं
__ सत्रार्थ-मुक्त जीव के मोडा रहित गति होती है । विग्रह, कौटिल्य और वक्रता ये तीनों शब्द एकार्थवाची हैं। जिस गति में विग्रह नहीं है वह अविग्रह गति कहलाती है । सूत्र में जीव पद आया है अतः पुद्गल की निवृत्ति होती है आगे के सूत्र में संसारी पद का ग्रहण किया है अतः यहां मुक्त जीव के अविग्रह गति होती है ऐसा संबंध जुड़ता है। अर्थात् मुक्त जीव के जो लोकान्त तक गति होती है वह नियम से ऋजु-अविग्रह होती है ऐसा जानना चाहिये ।
संसारी जीवों की कैसी गति होती है ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं