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________________ द्वितीयोऽध्यायः [ १०१ कार्मणं शरीरमित्यर्थः । आत्मप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणा क्रिया योगः कर्मणा कृतो योगः कर्मयोगः । स विग्रहगतावस्तीति सम्बध्यते । ततश्च शरीरायां गतौ जीवस्य कर्मयोगसद्भावात्कथंचिच्छरीरित्वं देहान्तरग्रहणं तत्पूर्वकसंसारित्वकथाप्रपञ्चश्च न विरुध्यत इति । गतिमतां जीवपुद्गलानां कथं गतिः स्यादित्याह अनुश्रेणि गतिः ॥ २६ ॥ आकाशप्रदेशपंक्तिः श्रेणिः अनुशब्द आनुपूर्फे वर्तते । श्रेणेरानुपू]णानुश्रेणि । गमनं गतिर्देशान्तरप्राप्तिरित्यर्थः पुनर्गतिग्रहणं सर्वगतिमज्जीवपुद्गलद्रव्यगतिसंग्रहार्थम् । तत्र जीवानां तावन जीवों का विस्तृत विवेचन कर रहे हैं वह कैसे सिद्ध हो? इस शंका का समाधान आचार्य ने दिया कि जीव के मरण के पश्चात् भी कार्मण शरीर साथ ही रहता है, उसके निमित्त से जो कार्मण योग होता है उसके द्वारा नवीन शरीरान्तर का ग्रहण होता है और शरीर विद्यमान होने के कारण मुक्तात्मा के समान भी नहीं कहलाता इसतरह अन्तः स्थित सूक्ष्म कार्मण शरीर के कारण इस जीवका संसार चलता रहता है यह कार्मण शरीर ही संसार भ्रमण का हेतु है। इसका नाश जब तक नहीं होता तब तक बराबर नवीन शरीर ग्रहण कर करके परिभ्रमण चलता रहता है । गति शील जीव पुद्गलों की गति किसप्रकार होती है ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं सूत्रार्थ-जीव पुद्गलों की गति श्रेणि के अनुसार होती है । __ आकाश प्रदेशों की पंक्ति को श्रेणि कहते हैं । अनु शब्द का अर्थ आनुपूर्वी है, जो श्रेणि के आनुपूर्वी के अनुसार है वह अनुश्रेणी है । देशान्तर प्राप्ति गति है । गति शब्द का पुनः ग्रहण [ पहले ६ सूत्र में गति शब्द आ चुका है ] गति शील सर्व जीव पुद्गलों की गति का संग्रह करने के लिये हुआ है। उनमें संसारी जीवों के मरण काल में दूसरे भव में जाते समय तथा मुक्त जीवों के ऊर्ध्वगमन काल में अनुश्रेणि गति ही होती है। तथा ऊर्ध्वलोक से अधोलोक में, अधोलोक से ऊर्ध्वलोक में तिर्यग्लोक से ऊर्ध्व अथवा अधोलोक में संसारी जीवों की जो गति है वह सर्व अनुश्रेणि रूप से ही होती है । पुद्गलों की जो लोकान्त प्रापणी गति है वह अनुश्रेणि ही है, इसप्रकार काल और देश का नियम यहां पर लगाना चाहिये । उक्त काल और देश को छोड़कर अन्य देश काल में अनुश्रेणि से गमन करने का नियम नहीं है ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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