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________________ १०० ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती संज्ञिनः इति पारिशेष्याल्लब्धम् । अत्र कश्चिदाह-जीवस्य पूर्वोपात्तशरीरत्यागादुत्तरशरीराभिमुखं गच्छतस्तत्सम्प्राप्तेः प्रागसिद्धेर्देहान्तरसम्बन्धाभावः प्राप्नोति मुक्तात्मवत्तथा च सति पूर्वोत्तरशरीरत्यागादानसन्ततिलक्षणसंसाराभावात्कथं संसारिणः प्रपञ्चयन्त इत्यत्रोच्यते _ विग्रहगतौ कर्मयोगः ।। २५ ॥ विग्रहो देहस्तादर्था गतिविग्रहगतिः । अथवा विरुद्धो ग्रहो विग्रहो व्याघातः पुद्गलादाननिरोध उच्यते । तेन विग्रहेण गतिविग्रहगतिस्तस्यां विग्रहगतौ शरीराभिसम्बन्धो जीवस्य क्रियते येन तत्कर्म यहां पर कोई शंका करता है कि जिस जीव के पूर्व शरीर का तो त्याग हो चुका है और आगामी शरीर के अभिमुख होकर जो जा रहा है उस जीव के आगामी शरीर के प्राप्ति के पहले असिद्धि होने से अन्य शरीर का सम्बन्ध नहीं हो सकेगा, जैसे कि मुक्त जीव के नहीं होता, और इसतरह शरीरान्तर का संबंध नहीं होने से पूर्व शरीर का त्याग और उत्तर शरीर का ग्रहण रूप जो संसार है उसका अभाव होगा, फिर संसारी जीवों का वर्णन किस प्रकार संभव है ? इसी शंका का समाधान अग्रिम सूत्र द्वारा करते हैं सूत्रार्थ-विग्रहगति में कर्म योग-कार्मण योग होता है। विग्रह देह को कहते हैं उसके लिये जो गति-गमन है वह विग्रहगति है अथवा विरुद्ध गृह को विग्रह कहते हैं अर्थात् पुद्गलों का ग्रहण रुक जाना, उस विग्रह द्वारा गति होना विग्रह गति है, उस विग्रहगति में जीवका शरीर के साथ जिसके द्वारा संबंध किया जाता है वह कर्म है अर्थात् कार्मणशरीर । आत्मा के प्रदेशों में परिस्पंदन-हलन चलन रूप क्रिया होना योग है । कर्म द्वारा किया गया योग कर्मयोग कहलाता है, वह योग विग्रह गति में विद्यमान रहता है, अतः जीव की शरीर के लिये जो गति होती है उस गति में कर्मयोग का सद्भाव होने से जीवके कथंचित् शरीरित्व शरीरान्तर का ग्रहण और उस पूर्वक होनेवाला संसारित्व वर्णन का प्रपंच ये सब ही विरुद्ध नहीं होते-सुघटित ही होते हैं। भावार्थ- शंका हुई थी कि जब कोई संसारी जीव मरता है तब उसका शरीर समाप्त होता है, उस वक्त दूसरा शरीर तो अभी मिला नहीं है ऐसी स्थिति में मुक्त जीवों के समान ही हो जाता है, अब उसके नया शरीर का संबंध किस प्रकार हो ? एवं संसारीपना भी कैसे हो ? इसतरह शरीर और संसरण के अभाव में जो संसारी
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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