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द्वितीयोऽध्यायः
[ ९९ क्रिम्यादयः कृतद्वन्द्वाः प्रसिद्धार्थास्तैः सहादिशब्द: प्रकारवाची कृतान्यपदार्थवृत्तिः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । तद्यथा-क्रिमिश्च पिपीलिका च भ्रमरश्च मनुष्यश्च क्रिमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यास्ते आदयो येषां ते क्रिमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादय इति । क्रिम्यादयः, पिपीलिकादयः, भ्रमरादयः, मनुष्यादयः इति । एकैकमिति वीप्सायां द्वित्वम् । वृद्धशब्दोऽधिकार्थः । एकैकेन वृद्धानि एकैकवृद्धानि । ततोऽयमर्थः-क्रिमिप्रकाराणामधिकृतं स्पर्शनं रसनाधिकमिति ते द्वीन्द्रियाः । पिपीलिकादीनां स्पर्शनरसने घाणाधिके इति ते त्रीन्द्रियाः । भूमरादीनां स्पर्शनरसनघाणानि चक्षुरधिकानीति ते चतुरिन्द्रियाः । मनुष्यादीनां स्पर्शनरसनघाणचक्षू षि श्रोत्राधिकानीति ते पञ्चेन्द्रिया इति यथासङ्घयनाभिसम्बन्धो व्याख्येयः । के पुनः संज्ञिनः संसारिण इत्याह
संज्ञिनः समनस्काः ॥ २४ ॥ हिताहितप्राप्तिपरिहारपरीक्षा संज्ञा । तस्याः सम्भवोऽस्ति येषां ते संज्ञिनः । सह मनसा वर्तन्ते ये ते समनस्काः पूर्वमेव व्याख्याताः । त एव संज्ञिन इत्युच्यन्ते । मनोरहितास्तु संसारिणोऽ
कृमि आदि का द्वन्द्व समास करना फिर उन प्रसिद्ध अर्थ वाले पदों के साथ प्रकार वाची आदि शब्द का बहुब्रीहि समास करना, जिससे कि प्रत्येक के साथ आदि शब्द का सम्बन्ध होवे । अर्थात् कृमि आदिक, पिपीलिकादि भ्रमरादि और मनुष्यादि एकैकम् यह वीप्सा में द्वित्व हुआ है । वृद्ध शब्द अधिक अर्थ में आया है। एक एक रूप से वृद्ध है। इसका यह अर्थ है कि क्रिमि आदि जीव प्रकारों के प्रकृत स्पर्शन इन्द्रिय एक रसना से अधिक है, ऐसे इनके दो इन्द्रियां होने से ये द्वीन्द्रिय जीव कहलाते हैं । पिपीलिका आदि के स्पर्शन रसना में एक घ्राणेन्द्रिय अधिक करने से वे त्रीन्द्रिय हैं । भ्रमर आदि के स्पर्शन, रसना, घ्राण में एक चक्षु अधिक करके चार इन्द्रियां होने से वे चतुरिन्द्रिय जीव हैं। मनुष्य आदि के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु में एक श्रोत्र बढ़ाने से वे पंचेन्द्रिय जीव कहलाते हैं । इसतरह क्रमशः संबंध करना चाहिये ।
संज्ञी संसारी जीव कौन हैं ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैंसूत्रार्थ-मनसहित जीव संज्ञी कहलाते हैं।
हित की प्राप्ति और अहित के परिहार की परीक्षा संज्ञा कही जाती है वह संज्ञा जिनके पायी जाती हैं वे संज्ञी हैं। मन के साथ रहनेवाले समनस्क जीव हैं ऐसा पहले कह दिया है । वे समनस्क ही संज्ञी कहे जाते हैं। जो संसारी जीव मन रहित हैं वे असंज्ञी हैं ऐसा परिशेष व्याय से सिद्ध होता है ।