________________
सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥ २१ ॥
श्रुतज्ञानविषयोप्यत्रोपचाराच्छ्रुतमुच्यते । अनिन्द्रियं मनः कथ्यते । श्रुतमनिन्द्रियस्य विषयो भवति - श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमविशिष्टस्यात्मनः श्रुतज्ञानस्यार्थेऽनिन्द्रियालम्बनज्ञानप्रवृत्तेः । इदानीं स्पर्शनस्य तावत् स्वामिनिर्देशार्थमाह
९८ ]
वनस्पत्यन्तानामेकम् ।। २२ ।।
वनस्पतिरन्ते येषां ते वनस्पत्यन्ताः । तेषां वनस्पत्यन्तानाम् । पृथिव्यादीनामित्येतत्सामर्थ्याल्लभ्यते—सूत्रे स्थावराणां तथैव पठितत्वात् । एकशब्दोऽत्र प्रथमवाची गृह्यते । ततः पृथिव्यादीनां वनस्पतिपर्यन्तानां पञ्चस्थावराणां स्पर्शनमिन्द्रियं वेदितव्यम् । इतरेषामिन्द्रियाणां स्वामिप्रदर्शनार्थमाह
क्रिमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥ २३ ॥
1
सूत्रार्थ - अनिन्द्रिय अर्थात् मन का विषय श्रुत है । यहां पर श्रुतज्ञान के विषयभूत पदार्थ को भी उपचार से श्रुत कहा है । अनिन्द्रिय का अर्थ मन है, श्रुत मन का विषय होता है। श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से युक्त आत्मा के श्रुतज्ञान के विषयभूत पदार्थ में मन के आलंबन से जानन में प्रवृत्ति होती है यह तात्पर्य है ।
अब स्पर्शनेन्द्रिय के स्वामी का निर्देश करते हैं
सूत्रार्थ - वनस्पति पर्यन्त के स्थावर जीवों के एक स्पर्शनेन्द्रिय होती है ।
वनस्पति है अन्त में जिसके वे वनस्पत्यन्त कहलाते हैं, अर्थात् पृथिवीकायिक आदि का सामर्थ्य से ग्रहण हो जाता है, क्योंकि सूत्र में [ नं० १३ के ] स्थावरों का उसीप्रकार पाठ है । एक शब्द प्रथमवाची है । पृथिवी आदि से लेकर वनस्पति पर्यन्त पांच स्थावरों के एक स्पर्शनेन्द्रिय होती है ऐसा जानना चाहिये ।
इतर इन्द्रियों के स्वामी बतलाते हैं
सूत्रार्थ - लट, चींटी, भौंरा और मनुष्य आदि जीवों के एक एक इन्द्रिय बढ़ती है ।