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द्वितीयोऽध्यायः
[ ९३ वाचित्वादागमे व्यवस्थिता द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रिया गृह्यन्ते । द्वीन्द्रियस्य प्राणाः पूर्वोक्ताश्चत्वारो रसनावाक्प्राणाधिकाः षड्भवन्ति । त्रीन्द्रियस्य त एव घ्राणप्राणाधिकास्सप्त प्राणा भवन्ति । चतुरिन्द्रियस्य त एव चक्षुःप्राणाधिका अष्ट प्राणा भवन्ति । पञ्चेन्द्रियस्य तिरश्चोऽसंज्ञिनस्त एव श्रोत्रप्राणाधिका नव प्राणा भवन्ति । संज्ञिनस्त एव मनोबलाधिका दश प्राणा भवन्ति । त एते द्वीन्द्रियादयस्त्रससंज्ञा भवन्ति । इदानीमिन्द्रियाणामियत्तावधारणार्थमाह
पञ्चेन्द्रियाणि ॥ १५ ॥ इन्द्रियशब्दो व्याख्यातार्थः । अत्रोपयोगप्रकरणादुपयोगसाधनानां ग्रहणं, न क्रियासाधनानां
आदि शब्द व्यवस्थावाची होने से आगम में व्यवस्थित द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव ग्रहण किये जाते हैं, द्वीन्द्रिय जीवों के छह प्राण हैं, पूर्वोक्त चार और रसना तथा वचन बल प्राण । त्रीन्द्रिय जीव के उक्त छह प्राणों में एक घ्राणेन्द्रिय मिलाने से सात प्राण होते हैं । चतुरन्द्रिय जीव के उक्त सात प्राणों में एक चक्ष रिन्द्रिय मिलाने से आठ प्राण होते हैं । असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों के उक्त आठ प्राणों में एक कर्णेन्द्रिय मिलाने से नौ प्राण होते हैं । संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के उक्त नौ में मनोबल प्राण मिलाने से दस प्राण होते हैं । इसप्रकार ये सब द्वीन्द्रिय आदिक जीव त्रस संज्ञा वाले हैं।
इस समय इन्द्रियों की संख्या निर्धारित करते हैंसूत्रार्थ-इन्द्रियां पांच होती हैं ।
इन्द्रिय शब्द का अर्थ बता चुके हैं। यहां पर उपयोग का प्रकरण है अतः उपयोग के साधन भूत जो इन्द्रियाँ हैं उन्हीं को ग्रहण किया है, क्रिया के साधनरूप वचन, हाथ, पैर, पायु और उपस्थ को इन्द्रिय रूप ग्रहण नहीं किया है। दूसरी बात यह भी है कि यदि क्रिया के सहायभूत हस्त आदि को इन्द्रियाँ माना जाय तो पृथिवी आदि को भी इन्द्रियां माननी पड़ेगी, क्योंकि वे भी क्रिया के साधन हैं ? अतः यह निश्चित होता है कि इन्द्रियाँ पाँच ही हैं इससे न कम हैं न अधिक ।
विशेषार्थ-पर वादीगण-सांख्यादिक इन्द्रियां ग्यारह मानते हैं, पांच ज्ञानेन्द्रियांस्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण । तथा पांच कर्मेन्द्रियां मानते हैं-वचन, हस्त, पाद तथा स्त्री और पुरुष के लिंग पायु और उपस्थ तथा एक मन-इन्द्रिय । इस मान्यता