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________________ ९४ ] . सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती वाक्पाणिपादपायूपस्थानां । तथा तादृशानां ग्रहणे पृथिव्यादीनामपीन्द्रियत्वप्रसङ्गात् । ततः पञ्चेन्द्रियाणि भवन्ति न हीनाधिकानीति स्थितम् । सम्प्रतीन्द्रियाणां द्वैविध्यख्यापनार्थमाह द्विविधानि ॥ १६ ॥ विधशब्दः प्रकारवाची। द्वौ विधौ येषां तानि द्विविधानि-द्विभेदानीत्यर्थः । को पुनस्तौ प्रकारौ ? द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं चेति । तत्र द्रव्येन्द्रियस्वरूपप्रतिपत्त्यर्थमाह निवृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥ १७ ॥ ___कर्मणा नियंत इति निर्वृत्तिः । निर्वृत्तेरुपकारः क्रियते येन तदुपकरणम् । निर्वृत्तिश्चोपकरणं च निर्वत्त्युपकरणे । पुद्गलद्रव्यरूपमिन्द्रियं द्रव्येन्द्रियम् । ते द्वे अपि द्रव्येन्द्रियशब्दवाच्ये का टीकाकार ने निरसन किया है कि उपयोग अर्थात् ज्ञान दर्शन में सहायक पांच स्पर्शनादि इन्द्रियां ही हैं, क्रिया के साधनों को इन्द्रियां कहना हास्यास्पद है, तथा क्रिया के साधन तो अनेक होते हैं, पांच ही नहीं होते । पृथिवी पर स्थित होकर ही क्रिया कर सकते हैं अतः पृथिवी को भी इन्द्रिय कहना होगा । अंगुली आदि भी क्रिया में सहायक है। अत: क्रिया के साधन पाँच ही हैं ऐसा निश्चित नहीं होने से आपके इन्द्रियों की संख्या विघटित हो जाती है। इसतरह इन्द्रियां पांच ही सिद्ध होती हैं। इस समय इन्द्रियों के दो प्रकार सूत्र द्वारा कहते हैं सत्रार्थ-उक्त पांचों ही इन्द्रियों के दो प्रकार हैं । विध शब्द प्रकार वाची है, दो प्रकार हैं जिनके वे द्विविध कहलाती हैं। वे दो प्रकार कौनसे हैं ऐसा प्रश्न होने पर बतलाते हैं कि द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय ये दो प्रकार हैं। उनमें द्रव्येन्द्रिय के स्वरूप की प्रतिपत्ति के लिये कहते हैं सत्रार्थ-निवत्ति और उपकरण ये दो द्रव्येन्द्रियां हैं। जो कर्म द्वारा रची जाती है वह निर्वत्ति कहलाती है। जिसके द्वारा निर्वृत्ति का उपकार किया जाता है वह उपकरण है। निर्वृत्ति और उपकरण शब्द में द्वन्द्व समास हुआ है । पुद्गल द्रव्य रूप इन्द्रिय द्रव्येन्द्रिय है । वे दोनों-निर्वृत्ति और उपकरण द्रव्येन्द्रिय शब्द के वाच्य होते हैं। उनमें निर्वत्ति दो प्रकार की है-बाह्य और अभ्यन्तर । चक्षु आदि में मसूर आदि के आकार रूप बाह्य निर्वृत्ति है । चक्षु आदि इन्द्रिय ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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