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द्वितीयोऽध्यायः
[ ९१ संसारिणस्त्रसस्थावराः ॥ १२ ॥ त्रसनामकर्मोदये सति त्रस्यन्ति चलन्तीति वसाः । स्थावरनामकर्मोदये सति स्थानशीला अचलनस्वभावाः स्थावराः अत्र व्युत्पत्तेगौणत्वान्न चलनाचलनात्मकं त्रसस्थावरत्वं किं तहि नामकर्मोदयनिमित्तम् । अत्रापि पुनः संसारिग्रहणात्समनस्कामनस्कानां त्रसस्थावराणां च याथासङ ख्याभावे संसारिण एव त्रसाः स्थावराश्चेति विभज्यन्ते तत्राल्पवक्तव्यत्वात् स्थावराणां तावन्निश्चयः क्रियते
पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ॥ १३ ॥ स्थावरनामकर्मभेदाः पृथिव्यादयः सन्ति । तदुदयनिमित्ता जीवेषु पृथिव्यादयः संज्ञा वेदितव्याः । तत्र पृथिवी, पृथिवीकायः, पृथिवीकायिकः, पृथिवीजीव इति चतुर्णामपि पृथिवीशब्दवाच्यत्वेऽपि शुद्धपुद्गलपृथिव्याः जीवपरित्यक्तपृथिवीकायस्य च नेह ग्रहणं तयोरचेतनत्वेन तत्कर्मोदया
सूत्रार्थ-संसारी के त्रस और स्थावर ऐसे दो भेद हैं ।
त्रस नाम के उदय होने पर जो उद्वेग को प्राप्त होते हैं चलते हैं वे त्रस हैं । स्थावर नाम कर्म के उदय होने पर स्थान शील होते हैं अचल स्वभावी होते हैं वे स्थावर हैं । यहां पर निरुक्ति अर्थ गौण है अतः चलना और नहीं चलना रूप त्रस स्थावर पना नहीं लिया है किन्तु नाम कर्म के उदय के निमित्त से होने वाला त्रस स्थावरत्व लिया है। इस सूत्र में पुनः संसारी शब्द ग्रहण किया है जिससे कि समनस्क अमनस्क तथा त्रस स्थावरों के यथासंख्यपना न होवे अर्थात् सभी त्रस समनस्क और स्थावर अमनस्क ऐसा क्रम नहीं लगाना है, संसारी के ही त्रस स्थावर ऐसे दो भेद होते हैं ऐसा क्रम लगाना है ।
स्थावरों के विषय में अल्प कथन है अतः पहले उनका निश्चय करते हैं
सत्रार्थ-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति जीव स्थावर हैं। स्थावर नाम के उत्तर भेद पृथिवी आदि हैं, उस उस कर्म के उदय के निमित्त से जोवों में पृथिवी आदि संज्ञायें होती हैं। उनमें पृथिवी, पृथिवीकाय, पृथिवीकायिक और पृथिवी जीव इसप्रकार चारों भेद पृथिवी शब्द के वाच्य हैं तो भी यहां पर शुद्ध पुद्गल पृथिवी और जीव के द्वारा छोड़ दिया गया पृथिवीकाय का ग्रहण नहीं करना, क्योंकि ये दोनों अचेतन स्वभावी हैं, इनमें उस पृथिवी नाम कर्म का उदय संभव नहीं है अतः उस कर्मोदय निमित्तक संज्ञा इन अचेतन के नहीं होती। यहां पर तो जीवका