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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती
समनस्कामनस्काः ॥ ११ ॥ मनो द्विविधं-द्रव्यभावभेदात् । तत्र पुद्गलविपाकिकर्मोदयापेक्षं द्रव्यमनः । वीर्यान्तराय नोइन्द्रियावरणक्षयोपशमापेक्षा आत्मविशुद्धिर्भावमनः तेन मनसा सह वर्तन्त इति समनस्काः । न विद्यते मनो येषां ते अमनस्काः । समनस्काश्चामनस्काश्च समनस्कामनस्काः उत्तरसूत्रस्यादौ यत्संसारिग्रहणं कृतं तस्येह सम्बन्धान्मुक्तानामननुवृत्तेर्याथासङ ख्यं नास्ति ततः संसारिण एव केचित्समनस्काः केचिदमनस्का इति वेदितव्यम् । पुनरपि संसारिणां भेदप्रतिपत्त्यर्थमाह
परावर्तन हो जाते हैं अथवा द्रव्य परिवर्तन अनंतबार होवे तब एक क्षेत्र परिवर्तन पूर्ण होता है ऐसा आगे कालादि में भी समझना । यह उदाहरण मात्र है । वास्तव में इन परावर्तनों का समय एवं स्वरूप दुरूह है। मिथ्यात्व के वश में होकर हम संसारी जीवों ने ऐसे अनंत परिवर्तन अतीत में कर लिये हैं । भव्य मुमुक्षुजनों को इसकी गहनता, विषमता, दुःख दायकता ज्ञात कर शीघ्र ही सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेना चाहिये । सम्यग्दर्शन ही एक ऐसा अमूल्य रत्न है जो इस अनंत परावर्तनों का नाशछेद कर देता है।
अब संसारी जीवों के विशेष भेद बतलाते हैं
सूत्रार्थ-संसारी जीव संज्ञी और असंज्ञी होते हैं। मन दो प्रकार का है द्रव्यमन, भावमन । पुद्गल विपाकी नाम कर्म के उदय से द्रव्य मन बनता है। वीर्यान्तराय कर्म और नो इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर आत्मा की जो विशुद्धि है वह भाव मन कहलाता है। अर्थात् शरीर में हृदय रचना रूप द्रव्य मन है और वीर्यान्तरायादि कर्म के क्षयोपशम से आत्मा में जो विचार करने की शक्ति होती है वह भाव मन है । ऐसे मन से युक्त जीवों को समनस्क कहते हैं । जिनके उक्त मन नहीं है वे अमनस्क जीव हैं। आगे के बारहवें नंबर के सूत्र में “संसारिणः" पद लिया है उसका सम्बन्ध इस ग्यारहवें सूत्र में भी करना चाहिये जिससे यथाक्रम का प्रसंग नहीं होगा, अर्थात् संसारी जीव समनस्क और मुक्त जीव अमनस्क ऐसा विरुद्ध क्रम नहीं जोड़ सकते, क्योंकि अग्रिम सूत्र से संसारी शब्द का ग्रहण कर लिया जाता है, अतः संसारी जीवों में ही कोई समनस्क होते हैं और कोई अमनस्क ( मन सहित और मन रहित ) होते हैं ऐसा जानना चाहिये।
पुनः संसारी जीवों के भेद बतलाते हैं