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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती
स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ॥ ६॥ स पूर्वोक्त उपयोग इत्यर्थः । द्वौ विधौ प्रकारौ भेदौ यस्यासौ द्विविधः । अष्टौ च चत्वारश्चाष्ट चत्वारस्ते भेदा यस्य सोऽयमष्ट चतुर्भेदः । स उपयोगस्तावद्विभेदः । साकाराऽनाकारविकल्पात्साकारं सविकल्पकं ज्ञानमित्यर्थः । अनाकारं निर्विकल्पकं दर्शनमित्यर्थः । तदुक्तम्
सविकल्पं भवेज्ज्ञानं निर्विकल्पं तु दर्शनम् । द्वाविमौ प्रतिभासस्य भेदौ वस्तुनि कीर्तितौ ।। इति ॥
सूत्रार्थ-वह उपयोग दो प्रकार का है पुनः उन दोनों के क्रमशः आठ और चार भेद हैं । 'स' शब्द से उपयोग का ग्रहण होता है । द्विविध शब्द में बहुव्रीहि समास और 'अष्ट चतुर्भेदः' पद में प्रथम द्वन्द्व समास करके बहुब्रीहि समास किया है। प्रथम ही उपयोग के दो भेद हैं साकार उपयोग और अनाकार उपयोग । सविकल्प ज्ञान को साकारोपयोग कहते हैं और निर्विकल्पक दर्शन को अनाकारोपयोग कहते हैं । कहा है-ज्ञान सविकल्प है और दर्शन निर्विकल्प है; वस्तु के प्रतिभास के ये दो भेद कहे गये हैं ॥१॥ ज्ञान आठ प्रकार का है-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान, केवलज्ञान, मतिअज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंगावधि । दर्शन चार प्रकार का है-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । इसप्रकार जीव के यह बारह प्रकार का सामान्य-विशेषात्मक उपयोग यथासंभव लगा लेना चाहिये, अर्थात् कौनसे गुणस्थान में कितने उपयोग होते हैं यह घटित कर लेना चाहिये ।
गुणस्थानों में उपयोग की संख्या दर्शक चार्टज्ञानोपयोग
दर्शनोपयोग मिथ्यात्व
कुमति, कुश्रु त, विभंग ३ चक्षु अचक्षुदर्शन २ २ सासादन ३ मिश्र
मिश्ररूप तीन ज्ञान ३ चक्षु. अचक्षु अवधिदर्शन ३ ४ अविरत
मति आदि तीन सुज्ञान ३ ५ देशविरत
मतिश्रु त अवधि मनःपर्यय ४ ६ प्रमत्त
गुरणस्थान
७ अप्रमत्त