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द्वितीयोऽध्यायः
[ ८५ जोवत्वं भव्यत्वमभव्यत्वं चेति । कर्मविशेषोपशमाद्यनपेक्षास्त्रयोऽन्यद्रव्यासाधारणाः पारिणामिकभावभेदा: प्राधान्येनोक्ताः। चशब्दाव्व्यान्तरसाधारणाः सत्त्वद्रव्यत्वासङ्घय यप्रदेशत्वामूर्तत्वादयोऽप्राधान्येनोक्ता गृह्यन्ते । अत्राह-जीवकर्मणोर्बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यविवेकः प्राप्नोतीति । तन्न–लक्षणतस्तनानार्थत्वसिद्धेः । यद्येवं जीवस्यैव तावकि लक्षणमित्यत्रोच्यते
उपयोगो लक्षणम ॥ ८ ॥ अन्तरङ्गबहिरङ्गकारणवशादुत्पद्यमानश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः । लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं ज्ञापकमित्यर्थः । प्रस्तुतस्य जीवस्योपयोगलक्षणं भवत्यन्यद्रव्यासाधारणत्वात् । तथा चात्मा पुद्गलादिभ्यस्तत्त्वान्तरं तद्भिन्नलक्षणत्वाऽन्यथाऽनुपपत्तेः । उपयोगस्य भेदप्रभेददर्शनार्थमाहभव्याः । ऐसा द्वन्द्व समास करके भाव वाचक "त्व' प्रत्यय जोड़ा गया है अर्थात् जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व । कर्म के उपशम क्षय आदि की अपेक्षा नहीं रखनेवाले ये तीन भाव पारिणामिक हैं जो कि अन्य द्रव्यों में नहीं पाये जाते हैं अतः असाधारण रूप ये ही तीन भाव प्रधानता से कहे गये हैं। सूत्रोक्त च शब्द द्वारा अन्य द्रव्यों में पाये जाने वाले साधारण रूप सत्त्व, द्रव्यत्व, असंख्येय प्रदेशत्व अमूर्तत्व आदि भाव अप्रधानता से ग्रहण किये हैं। ___शंका-जीव और कर्म को बंध की अपेक्षा एकपना स्वीकार करने पर उन दोनों में अभिन्नता प्राप्त होगी अर्थात् ये फिर कभी पृथक् नहीं हो पायेंगे ?
समाधान-ऐसा नहीं है । जीव और कर्म ये दोनों बंध दृष्टि से भले ही एकत्व को प्राप्त हों किंतु लक्षण की दृष्टि से इनमें नानापना भिन्नपना सिद्ध है अर्थात् जीवका और कर्म का लक्षण भिन्न भिन्न होने से दोनों में भेद है।
शंका-यदि ऐसी बात है तो बताईये कि जीवका लक्षण क्या है ? समाधान-इसीको सूत्र द्वारा बतलाते हैं
सूत्रार्थ-जीवका लक्षण उपयोग है । अंतरंग और बहिरंग कारण के वश से उत्पन्न होने वाला चैतन्यानुसार परिणाम उपयोग कहलाता है । जिसको लक्षित किया जाता है उसे लक्षण या ज्ञापक कहते हैं। प्रस्तुत जीवका लक्षण उपयोग है, क्योंकि यह जीवको छोड़कर अन्य द्रव्यों में नहीं रहता है । तथा आत्मा पुद्गलादि से भिन्न तत्त्व है, क्योंकि उनसे विभिन्न लक्षणत्व को अन्यथानुपपत्ति है, अर्थात् दोनों के लक्षण पृथक् पृथक् हैं इसलिये भिन्न भिन्न तत्त्व रूप हैं ।
उपयोग के भेद प्रभेद दिखाने के लिये सूत्र कहते हैं