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________________ ८४ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती सर्वघातिस्पर्धकस्योदयादसंयतपरिणाम औदयिक एकः । कर्मोदयसामान्यापेक्षोऽसिद्धत्वपर्याय प्रौदयिक एकः । कषायोदयरञ्जिता योगप्रवृत्तिर्भावलेश्या औदयिकी। सा षड्विधा-कृष्णनीलकापोततेजः पद्मशुक्लभेदात् । उपशान्तक्षीणकषायसयोगकेवलिषु भूतपूर्वगत्या कषायोदयरञ्जनाद्योगस्य शुक्ललेश्यात्योपचारसम्भवः । त इमे एकविंशतिभेदा प्रौदयिकभावस्य बोद्धव्याः । असज्ञित्वमज्ञाने, मिथ्यादर्शने त्वदर्शनमन्तर्भवति । हास्यादीनां षण्णां नोकषायाणां लिङ्गस्योपलक्षणत्वाद्ग्रहणम् । सकलाऽघातिकार्याणामौदयिकानां गतिग्रहणमुपलक्षणम् । अधुना पारिणामिकभावभेदसङ्कीर्तनार्थमाह जीवभव्याभव्यत्वानि च ॥ ७ ॥ जीवत्वं चैतन्यम् । सम्यग्दर्शनादिपर्यायाविर्भावशक्तिर्यस्यास्ति स भव्यः । तद्विपरीतलक्षणः पूनरभव्यः । जीवश्च भव्यश्चाभव्य श्च जीवभव्याभव्यास्तेषां प्रत्येक भावा जीवभव्याभव्यत्वानि कर्म के सर्व घाती स्पर्धक के उदय से असंयत औदयिक भाव एक है । कर्मोदय सामान्य की अपेक्षा असिद्धत्व पर्यायरूप औदयिक भाव एक है। कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति रूप भाव लेश्या औदयिक है । वह छह प्रकार की है, कृष्ण, नील, कपोत, पीत, पद्म और शुक्ल । उपशान्त कषाय, क्षीण कषाय और सयोग केवली इन तीन गुणस्थानों में भूतपूर्व नय की अपेक्षा से लेश्या कही जाती है अर्थात् इन तीन गुणस्थानों में कषायोदय नहीं है किन्तु योग है । जो योग पहले कषायोदय से संयुक्त था वह यहां पर योग है, इसतरह भूतपूर्व न्याय से इन गुणस्थानों में योग प्रवृत्ति मात्र को उपचार से लेश्या-शुक्ल लेश्या कहा गया है । ये इक्कीस भेद औदयिक भाव के जानने चाहिये । असंज्ञित्व भाव का अज्ञान भाव में और मिथ्यादर्शन में अदर्शन भाव का अन्तर्भाव होता है। तीन लिंग के ग्रहण से हास्यादि छह नोकषायों का उपलक्षण से ग्रहण कर लिया है । संपूर्ण अघातिया कर्मों के उदय से होनेवाले सभी औदयिक भावों का संग्रह गति ग्रहणरूप उपलक्षण से हो जाता है । अब इस समय पारिणामिक भावों के भेदों को बतलाने के लिये सत्र कहते हैं सूत्रार्थ-पारिणामिक भाव के तीन भेद हैं, जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व । चंतन्य को जीवत्व कहते हैं । सम्यक्त्व आदि पर्याय के प्रगट होने की शक्ति जिसके है वह जीव भव्य है। इससे विपरीत लक्षण वाला अर्थात् जिसके सम्यक्त्वादि पर्याय कभी प्रगट नहीं होगी वह अभव्य है । जीवश्च, भव्यश्च अभव्यश्च जीवभव्या
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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