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द्वितीयोऽध्यायः
[ ८३ ङि मथ्यात्वस्य सम्यक्त्वेऽन्तर्भावात् । इदानीमौदयिकस्यैकविंशतिभेदसंज्ञाप्ररूपणार्थमाहगतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाऽज्ञानाऽसंयताऽसिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येककककषड्भेदाः॥६॥
गत्यादयः शब्दाः कृतद्वन्द्वा निर्दिष्टाः । चत्वारश्च चत्वारश्च त्रयश्च एकश्चैकश्चैकश्चैकश्च षट् च ते भेदा यासां गत्यादीनां तास्तथोक्ताः । यथा क्रममित्यनुवर्तते । ततो नरकगत्यादिनामकर्मोदयाद्गतिरौदयिकी भवति । सा चतुर्भेदा-नरकतिर्यङ मनुष्यदेवभेदात् । क्रोधादिकषायनिवर्तनस्य कर्मण उदयात्कषाय औदयिकः । स च चतुर्धा-क्रोधमानमायालोभविकल्पात् । स्त्रीवेदादिकर्मण उदयाल्लिङ्गमौदयिकम् । तत्त्रिविधं-स्त्रीपुनपुसकभेदात् । मिथ्यात्वकर्मण उदयान्मिथ्यादर्शनं तत्त्वार्थाऽश्रद्धानरूपमौदयिकमेकम् । ज्ञानावरणकर्मोदयात्पदार्थाऽनवबोधो भवत्यज्ञानमौदयिकं तदेकम् । चारित्रमोहस्य
अन्तर्भाव होता है।
अब औदायिक भाव के इक्कीस भेदों के नामों का प्ररूपण करने के लिये अग्रिम सूत्र कहते हैं
सूत्रार्थ- चार गति, चार कषाय, तीन लिंग, एक मिथ्या दर्शन, एक अज्ञान, एक असंयतत्व, एक असिद्धत्व और छह लेश्या में इसतरह औदायिक भाव के इक्कीसं भेद जानना चाहिये।
गति आदि पदों में द्वन्द्व समास हुआ है । तथा चतुः आदि संख्या वाचक पदों का भी द्वन्द्व समास हुआ है पुनश्च भेद शब्द के साथ उनका बहुब्रीहि समास हुआ है। यथाक्रम पद की अनुवृत्ति है उससे गति आदि का क्रम से चार आदि संख्या के साथ सम्बन्ध हो जाता है । नरक गति आदि नामकर्म के उदय से नरकगति आदि रूप औदयिक भाव होता है। वह गति चार भेद वाली है-नरकगति, तिर्यंचगति, मनष्यगति और देवगति । क्रोधादि कषायों को पैदा करनेवाले कर्म के उदय से औदयिक कषायभाव होता है, वह चार प्रकार का है क्रोध, मान, माया और लोभ । स्त्रीवेद आदि कर्म के उदय से लिंग औदायिक भाव होता है, वह तीन प्रकार का है स्त्रीलिंग पुलिंग, नपुंसक लिंग । मिथ्यात्व कर्म के उदय से मिथ्यादर्शन होता है जो तत्त्वार्थों की श्रद्धा नहीं होने देता यह एक प्रकार का औदयिक भाव है। ज्ञानावरण कर्म के उदय से पदार्थों का बोध नहीं होनेरूप अज्ञान औदयिक भाव एक है। चारित्रमोह