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________________ ८२ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती ते भेदा यासां ताश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः । यथाक्रममित्यनुवर्तते । तेन चतुरादिभिर्ज्ञानादीनां यथासङ्ख्यमभिसम्बन्धः क्रियते । ज्ञानं चतुर्भेद-मतिश्रु तावधिमनःपर्ययविकल्पात् । त्रिभेदमज्ञानं—मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानभेदात् । दर्शनं त्रिभेदं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनविकल्पात् । पञ्चभेदा लब्धिर्दानादिविकल्पात् । वेदकं सम्यक्त्वमेकम् । चारित्रं यतिधर्मस्तदेकम् । संयमासंयमो देशसंयमः श्रावकधर्मः सोप्येक एव । त एतेऽष्टादशैव मिश्रभावभेदा भवन्ति । संज्ञित्वस्य मतिज्ञाने, योगस्य वीर्ये, सम्य उपशम ऐसे दो रूप सर्वघाती कर्म के निषेकों का होना और देशघाती कर्म निषेक उदय में आना इसप्रकार मिश्रित रूप कर्म अवस्था के होने पर जो भाव उत्पन्न होता है वह क्षायोपशमिक भाव है। जैसे मति ज्ञानावरण कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों में से वर्तमान के निषेक का स्तिबुक संक्रमण होकर देशघाती रूप होकर उदय में आकर खिरना, तथा उसी सर्वघाती के आगामी काल में आनेवाले निषेकों को असमय में उदय में नहीं आना सदवस्था रूप उपशम है, तथा उसी मतिज्ञानावरण कर्म में जो देशघाती स्पर्धक हैं उनके निषेकों का उदय होना ऐसी मतिज्ञानावरण कर्म की अवस्था हो जाने पर क्षायोपशमिक मतिज्ञान प्रगट होता है । इसीप्रकार श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान आदि संपूर्ण अठारह भाव उस उस कर्म की क्षयोपशम रूप अवस्था होने पर उत्पन्न होते हैं। मतिज्ञानादि का लक्षण पहले कह आये हैं । सूत्रोक्त चतुः आदि संख्यावाचक पदों में प्रथम ही द्वन्द्व समास करना फिर बहुब्रीहि समास द्वारा भेद शब्द जोड़ना । यथाक्रम का अनुवर्तन है उससे चार आदि संख्या के साथ ज्ञानादि का सम्बन्ध कर लिया जाता है । मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार भेद ज्ञान के हैं। मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंगावधि ये तीन अज्ञान के भेद हैं। चक्षुदर्शन, अचक्षदर्शन और अवधिदर्शन ये तीन दर्शन के भेद हैं। क्षायोपशमिक दान, लाभ, भोग उपभोग और वीर्य ये पांच लब्धियों के भेद हैं । एक वेदक-क्षयोपशम सम्यक्त्व है। यति धर्मरूप एक क्षयोपशम चारित्र है । देश संयम रूप संयमासंयम श्रावकधर्म भी एक ही भाव है। इसप्रकार सब मिलाकर कुल अठारह मिश्र भाव के भेद होते हैं । संज्ञीपना ( मन सहितता ) रूप जो क्षयोपशम भाव है उसका मतिज्ञान नाम वाले क्षयोपशम भाव में अन्तर्भाव होता है, मनोयोग आदि योग का क्षयोपशमिक वीर्य भाव में अन्तर्भाव होता है और सम्यग्मिथ्यात्व भाव का क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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