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द्वितीयोऽध्यायः
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प्रागुक्तमिथ्यात्वादि सप्तप्रकृतीनामत्यन्तक्षयात्सम्यक्त्वं क्षायिकम् । निःशेषमोहक्षयाच्चारित्रं क्षायिकम् । सिद्धषु क्षायिकदानादीनां कथं वृत्तिरिति चेदुच्यते- शरीरनामतीर्थकरनामकर्मोदयाद्यभावादभय नादबाह्य कार्याभावेऽपि परमानन्तवीर्याऽव्याबाधरूपेणैव तेषां सिद्ध ेषु वृत्तिर्वेदितव्या । केवलज्ञानरूपेणानन्तवीर्यवृत्तिवत् । उक्ता ज्ञानादयः क्षायिकस्य नव भेदाः । साम्प्रतं मिश्रभावस्याष्टादशभेदसंसूचनार्थमाह
ज्ञानाज्ञानदर्शन लब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्च भेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ।। ५ ।।
सर्वघातिस्पर्धकानामुदयक्षयात्तेषामेव सदुपशमाद्देशघातिस्पर्धकानामुदये सति ज्ञानादिः क्षायोपशमिको भावो भवति । ज्ञानादय उक्तलक्षणाः । चत्वारश्च त्रयश्च त्रयश्च पञ्च च चतुस्त्रित्रिपञ्च ।
प्रगट होता है । सूत्रोक्त च शव्द से क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र भावों का ग्रहण होता है । पहले कहे हुए मिथ्यात्व आदि सात कर्म प्रकृतियों के अत्यन्त क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व भाव उत्पन्न होता है । संपूर्ण मोहनीय कर्म के क्षय से क्षायिक चारित्र भाव होता है |
शंका- क्षायिक दान आदि का लक्षण सर्व जीवों को अभय दान देना आदि किया है सो ऐसे क्षायिक दानादि सिद्धों में किस प्रकार संभव है ?
समाधान - सिद्ध प्रभु के तीर्थंकर नाम कर्म के उदय आदि रूप कारणों का अभाव होने से अभयदानादि बाह्य कार्यों का यद्यपि अभाव है तो भी परम अनन्तवीर्य अव्याबाध गुण रूप से उन अभयदानादि का सद्भाव सिद्धों में पाया जाता है ऐसा जानना चाहिये । जैसे कि अनन्तवीर्य केवलज्ञान स्वरूप से अवस्थित होता है ।
क्षायिक भाव के ज्ञानादि नौ भेद कह दिये । अब मिश्र भाव के अठारह भेदों की सूचना के लिये सूत्र कहते हैं
सूत्रार्थ - चार भेद वाला ज्ञान, अज्ञान के तीन भेद, दर्शन तीन प्रकार का, लब्धियां पांच तथा क्षयोपशम सम्यक्त्व, क्षयोपशम चारित्र और संयमासंयम ये क्षयोपशम भाव के अठारह भेद हैं ।
वर्तमान के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय पररूप से देश घाती में स्तिबुक संक्रमण द्वारा संक्रामित होकर उदय में आना और नष्ट होना ] है और सत्ता में स्थित आगामी सर्वघाती कर्म स्पर्धकों का असमय में उदय में नहीं आने देना सदवस्था रूप उपशम कहलाता है इसप्रकार उदयाभावी क्षय और सदवस्था रूप