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________________ < < < < < m द्वितीयोऽध्यायः । [ ८७ ज्ञानमष्टविध-मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मनःपर्ययज्ञानं केवलज्ञानं मत्यज्ञानं श्रुताऽज्ञानं विभङ्गज्ञानं चेति । दर्शनं चतुर्भेदं-चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनं चेति । एवं सामान्यविशेषात्मको द्वादशविकल्प उपयोगो जीवानां यथासम्भवं योजनीयः । ते चोपयोगिनो जीवा द्विविधाः । _____ संसारिणो मुक्ताश्च ॥ १० ॥ संसरणं संसारः । स च नरकतिर्यङ मनुष्यदेवगतिषु द्रव्यक्षेत्रकालभवभावपरिवर्तनरूपः पञ्चगुणस्थान ज्ञानोपयोग दर्शनोपयोग ८ अपूर्वकरण ९ अनिवृत्तिकरण १० सूक्ष्मसांपराय ११ उपशांतमोह १२ क्षीणमोह १३ सयोग केवली केवलज्ञान १ केवलदर्शन १४ प्रयोग केवली केवलज्ञान १ केवलदर्शन उपर्युक्त उपयोग धारक जीव दो प्रकार के हैं सूत्रार्थ-जीव दो प्रकार के होते हैं संसारी और मुक्त । संसरण परिभ्रमण को संसार कहते हैं। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में भ्रमण स्वरूप अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव स्वरूप पंच परावर्तन करना संसार है । जिनके यह संसार पाया जाता है वे संसारी जीव कहलाते हैं । जो उक्त पंच परावर्तन रूप संसार से रहित हो गये हैं वे जीव मुक्त कहलाते हैं। संसारी और मुक्त पदों में बहु वचन रखा है क्योंकि ये दोनों ही प्रकार के जीव अनंत हैं। विशेषार्थ— "संसरणं संसारः" अनादि काल से मिथ्यात्वादि विकारी परिणाम युक्त होकर यह जीव पांच प्रकार से तीन लोक में भ्रमण कर रहा है, यह परिवर्तन अति विशाल, अगाध, अथाह है । पंच परावर्तन का संक्षिप्त स्वरूप यहां पर बतलाते हैं-द्रव्य परिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन, काल परिवर्तन, भव परिवर्तन और भाव परिवर्तन । द्रव्य परिवर्तन के दो भेद हैं-नोकर्म द्रव्य परिवर्तन और कर्म द्रव्य परिवर्तन । अब नोकर्म द्रव्य परिवर्तन का स्वरूप कहते हैं-किसी एक जीव ने तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों को एक समय में ग्रहण किया । वे पुद्गल जिन स्निग्ध रूक्ष आदि स्पर्श तथा वर्ण गन्ध से युक्त थे, तथा जिस तीव्र मन्दादि भाव से ग्रहण किये थे उस रूपसे अवस्थित रहकर द्वितीयादि समयों में निर्जीर्ण हो गये।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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