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द्वितीयोऽध्यायः
[ ७७ मदनकोद्रवमदशक्तिक्षयोपशमपरिणामः । चशब्देन षष्ठः सान्निपातिक: समुच्चीयते । स च पूर्वोत्तरभावसंयोगाद्वित्रिचतुःपञ्चसंयोगजो ज्ञेयः । जीवस्यात्मनस्तस्य भावस्तत्त्वम् । स्वं च तत्तत्त्वं च स्वतत्त्वमसाधारणं स्वरूपमित्यर्थः । कर्मणः स्वफलदानसामर्थ्येनोद्भतिरुदयः उदये भव प्रौदयिकः । कर्मोपशमक्षयक्षयोपशमोदयानपेक्षो जीवभावः परिणामस्तत्र भवः पारिणामिकः । त एते औपशमिकादयश्चेतनात्मकं जीवस्यैव स्वतत्त्वं भवतीति समुदायार्थः अचेतनः पुनरौदयिको भावः पुद्गलानामप्य
श्रुतज्ञानी जीव है। इसप्रकार द्विसंयोगी आदि के उदाहरण हैं। ये सान्निपातिक रूप भाव २६ हैं। इनका विवरण तत्त्वार्थ राजवात्तिक ग्रन्थ में अवलोकनीय है।
जीव का स्वतत्त्व अर्थात् असाधारण स्वरूप जो है वह इन पांच भाव रूप है। कर्म में फलदान की सामर्थ्य प्रगट होना उदय है, उदय में जो हो वह औदयिक भाव है । जो कर्म के क्षय, उपशम और क्षयोपशम की अपेक्षा से रहित है ऐसा जीवका भाव है वह परिणाम है उसमें जो होवे वह पारिणामिक है। इसप्रकार ये औपशमिक आदि भाव चेतनात्मक होने से जीवका स्वतत्त्व कहलाता है ऐसा समुदाय अर्थ जानना चाहिये । अचेतन रूप जो औदयिक भाव है वह पुद्गलों के भी होता है । तथा पारिणामिक छहों द्रव्यों के होता है ऐसा जानना चाहिए ।
विशेषार्थ-जीव के स्वतत्त्वरूप जो मूल पांच भाव हैं तथा उनके उत्तर भेद वेपन हैं वे सब चेतनात्मक हैं । औदयिक भाव पुद्गलात्मक भी होता है वह अचेतन है। अभिप्राय यह है कि कर्म अचेतन पुद्गल द्रव्य है, कर्म की फल देने रूप जो अवस्था है वह उदय है, प्रत्येक कर्म की यह अवस्था होती है अतः प्रकृति भेद से उदय अनेक प्रकार है यह सर्व ही अचेतनात्मक है, उदयरूप जो होवे वह औदायिक है इसप्रकार अर्थ करने पर पौद्गलिक औदायिक भाव का ग्रहण हो जाता है।
पारिणामिक भाव तीन प्रकार का वह सर्व ही जीव का स्वतत्त्व है। यहां छहों द्रव्यों में पाया जाने वाला पारिणामिक भाव भी होता है ऐसा संकेत किया है वह इसप्रकार है-अस्तित्व, अन्यत्व, पर्यायत्व, प्रदेशत्व, नित्यत्व आदि भाव पारिणामिक कहलाते हैं और ये धर्मादि छहों द्रव्यों में पाये जाते हैं ये सर्व साधारण भाव हैं। इनको पारिणामिक इसलिये कहते हैं कि ये परनिमित्तक नहीं हैं , जैसे कि जीवके जीवत्व आदि भाव कर्म आदि पर के निमित्त से नहीं होते वैसे अस्तित्व आदि परि