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________________ ७६ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती अात्मनि स्वकार्यकरणासमर्थस्यानुदयप्राप्तस्य कर्मणः सदवस्थोपशमः । यथा कतकादिद्रव्यसम्बन्धादम्भसि कालुष्यकरणासमर्थस्य पङ्कस्यानुद्भूतस्याधः सदवस्थोपशमः । उपशमे भवः परिणाम औपशमिकः । कर्मणोत्यन्ताभावः क्षयो यथाम्भसि भाजनान्तरसङ्कान्ते पङ्कस्य । क्षये भव: परिणामः क्षायिकः । भावौ परिणामौ । तदुभयस्वभावः पर्यायो मिश्रः क्षायोपशमिक उच्यते-यथा संबंधी स्वजाति द्विसंयोगज भाव उत्पन्न होता है । दो भिन्न जातीय भावों के संयोग से भिन्न जातीय द्वि संयोगी भाव होता है जैसे क्षायिक सम्यक्त्व और उपशम चारित्र का संयोग ग्यारहवें गुणस्थान में होता है ( क्योंकि क्षायिक सम्यग्दृष्टि उपशम श्रेणि भी चढ़ सकता है ) इसीप्रकार उपशम, क्षायिक और क्षायोपशिक ऐसी तीन भावों के संयोग से त्रिसंयोगी भेद बनता है, उपशम, क्षायिक, क्षयोपशम और पारिणामिक के संयोग से चतुः संयोगी भेद होता है और पांच के संयोग से पंच संयोगी सान्निपातिक भाव बनता है। कहा भी है दुग तिग चदु पंचेव य संयोगा होंति सन्निवादेसु । दस दस पंच य एक्क व भावा छव्वीस पिंडेण ।।१।। अर्थ-दो का संयोग, तीन का, चार का और पांच का संयोग इसप्रकार सान्निपातिक भाव में संयोग होता है, इनमें दो का संयोग करने पर द्वि संयोगी के प्रकार दस हो जाते हैं तीन का संयोग करने पर भी दस प्रकार होते हैं, चार का संयोग करने पर पांच प्रकार बनते हैं और पांचों भावों का संयोग करने पर एक प्रकार बनता है। कुल मिलाकर छब्बीस २६ भेद होते हैं ।। १ ॥ द्विसंयोगी का भेद जैसे औदयिक मनुष्य गति और उपशम सम्यक्त्व के संयोग रूप वह मनुष्य उपशम सम्यक्त्व है ऐसा कहना, ऐसे अन्य क्षायिक आदि दो दो भावों का संयोग करके द्विसंयोगी भेद बना लेना चाहिये । त्रिसंयोगी भेद जैसे-औदयिक औपशमिक और पारिणामिक मिश्रण करना कि यह मनुष्य उपशान्त क्रोध वाला जीव है इत्यादि, इसमें मनुष्य कहने से औदायिक उपशान्त क्रोध कहने से औपशमिक और जीव कहने से पारिणामिक भाव आ जाता है । चतुः संयोगी भेद जैसे-औपशमिक क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक का मिश्रण करके कहना उपशान्त क्रोधी क्षायिक सम्यक्त्वी श्रुतज्ञानी जीव है, इत्यादि । पंच संयोगी एक भेद है जैसे औदयिक, औपशमिक, क्षायिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक मिश्रण करके घटित करना कि मनुष्य उपशांत मोह क्षायिक सम्यक्त्वी
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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