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________________ अथद्वितीयोऽध्यायः सम्यग्दर्शनज्ञानविषयत्वेनोद्दिष्टेषु जीवादिषु तत्त्वार्थेषु मध्ये प्राद्यस्य जीवस्य किं स्वतत्त्वमित्याहऔपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिको च ॥ १ ॥ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के विषयपने से कहे हुए जीवादि सात तत्त्व हैं. उनमें आदि के जीव का स्वतत्त्व क्या है ऐसा पूछने पर सूत्र कहते हैं सूत्रार्थ-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ये मूल पांच भाव जीव का स्वतत्त्व-निजीतत्त्व है ॥ १॥ अपने कार्य को करने में जो अभी असमर्थ है ऐसे उदय को प्राप्त नहीं हुए कर्म का आत्मा में सत्ता रूप से स्थित रहना उपशम है। जैसे कतक-निर्मलीफलादि द्रव्य के सम्बन्ध से जल में मैलेपन को करने में असमर्थ ऐसे कीचड़ का प्रगट नहीं होना नीचे मौजूद रहना कीचड़ का उपशम कहलाता है । उपशम में जो हो उसे औपशमिक कहते हैं । कर्म का अत्यन्त अभाव होना क्षय है जैसे अन्य बर्तन में जल को निथार देने पर कीचड़ बिलकुल नहीं रहता। क्षय में जो हो वह क्षायिक है । परिणाम को भाव कहते हैं। उन उपशम और क्षयरूप दो स्वभाव की मिश्रण रूप पर्याय मिश्र या क्षायोपशमिक कही जाती है। जैसे कोदों धान्य की मद शक्ति क्षीण और उपशम रूप [ धोने आदि से ] हो जाती है । सूत्रोक्त च शब्द से छठे सान्निपातिक भाव का ग्रहण होता है । वह सान्निपातिक भाव इन औपशमिक आदि भावों को पूर्वोत्तर रूप से संयोग करने पर बनता है इनके संयोगों के द्वि संयोगी, त्रिसंयोगी चतुः संयोगी और पंच संयोगी ऐसे भेद होते हैं। विशेषार्थ-दो स्वजाति भावों को मिलाने पर स्वजाति द्विसंयोगी भेद होता है जैसे उपशम सम्यक्त्व और उपशम चारित्र के संयोग से ग्यारहवें गुणस्थान में उपशम
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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