________________
७४ ]
सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
शशधरकर निकरसता र निस्तलतरलतल मुक्ताफलहा रस्फारतारामि कुम्ब बिम्ब निर्मल तर परमोदार शरीरशुद्धध्यानानलोज्ज्वलज्वालाज्वलितघनघातीन्धन सङ्घातसकल विमल केवलालोकित
सकललोकालोकस्वभावश्रीमत्परमेश्वरजिनपतिमत विततमतिचिद चित्स्वभाव
भावाभिधान साधित स्वभावपरमाराध्यतममहा से द्वान्तः श्रीजिनचन्द्रभट्टारकस्तच्छिष्य पण्डितश्रीभास्करनन्दिविरचित
महाशास्त्रतत्त्वार्थवृत्ती सुखबोधायां प्रथमोऽध्याय समाप्तः ।
चन्द्रमा की किरण समूह के समान सुन्दर तुलना रहित तरल मोतियों के हार के समान ताराओं के समूह इन सब शुभ्र पदार्थों के समान परम औदारिक शरीर वाले तथा शुद्ध ध्यान रूपी अग्नि की उज्ज्वल ज्वाला द्वारा जला दिया है सघन घातिया कर्म रूपी इन्धन के समूह को जिन्होंने, सकल निर्मल केवलज्ञान द्वारा देख लिया है संपूर्ण लोक और अलोक के स्वभाव को जिन्होंने ऐसे श्रीमत् परमेश्वर जिनेन्द्र के मत द्वारा विस्तृत हुई जो बुद्धि उस बुद्धि से चेतन अचेतन स्वभाव वाले पदार्थों के कथन से साधित स्वभाव रूप परम आराध्य भूत ऐसे महा सिद्धांत को जो जानते हैं ऐसे श्री जिनचन्द्र नामा भट्टारक हुए थे, उनके शिष्य पण्डित श्री भास्करनन्दि हैं उनके द्वारा विरचित सुखबोध नामवाली महाशास्त्र तत्त्वार्थ सूत्र की टीका में पहला अध्याय समाप्त हुआ ।
¤