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________________ ७० ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती पृथक्त्वं चोपचारं च शुद्धं द्रव्यं च पर्ययम् । यथास्वं यो नयो वेत्ति स भूतार्थोऽन्यथेतरे ॥ इति ।। त इमे उक्ता नैगमादयो नया विषयस्यानन्तभेदत्वात्प्रतिविषयं भिद्यमाना बहुप्रकाराश्च का लक्षण शब्द नय की अपेक्षा समभिरूढ नय का विषय सूक्ष्म है इस बात का द्योतक है, क्योंकि शब्द नय तो मनुष्य और मर्त्य शब्द में अर्थ भेद नहीं कर सकता क्योंकि इसमें लिंगादि का भेद नहीं है किन्तु समभिरूढ नय शब्द भेद जहां है वहां अर्थ भेद अवश्य मानता है इससे शब्द नय के विषय से समभिरूढ नय का विषय सूक्ष्म है ऐसा सिद्ध होता है । यह तत्त्वज्ञ पुरुषों द्वारा विदित ही है कि नैगमादि सातों ही नयों का विषय क्रमशः आगे आगे सूक्ष्म-या अल्प होता गया है, अर्थात् नैगम नय महाविषय वाला है, उससे संग्रह नय अल्प विषय वाला है, उससे व्यवहार नय अल्प विषय वाला है इत्यादि [ इसका वर्णन तत्त्वार्थ श्लोक वात्तिक ग्रन्थ में बहुत ही सुन्दर रूप से किया गया है जिज्ञासुओं को वहीं से अवश्य जानना चाहिये यहां लिखें तो बहुत विस्तार होगा। ] समभिरूढ का दूसरा लक्षण=="नानार्थान् समतीत्व एकं अर्थ अभिमुख्येन रोहति स्म इति समभिरूढः" अनेक अर्थों को छोड़कर एक अर्थ को अभिमुख से ग्रहण करना समभिरूढ नय है। जितने अर्थ हैं उतने शब्द हैं, गाय वाचक गो शब्द और वाणी वाचक गो शब्द भिन्न ही है अर्थात् इस नय की दृष्टि से एक गो शब्द के वाणी, राजा, किरण, पृथ्वी आदि नौ अर्थ नहीं हो सकते हैं। तीसरा लक्षण-"नानार्थ समभिरोहणात् समभिरूढः" यह क्रिया के भेद से अर्थ में भेद करता है, इन्दन क्रिया से इन्द्र है शकन क्रिया से शक है इत्यादि । चौथा लक्षण-यो यत्र अभिरूढः तस्य तत्रैव आभिमुख्येन वर्तनात् समभिरूढः" जो पदार्थ जहां पर रूढ है-अवस्थित है उसको वहीं स्थित मानना अन्यत्र नहीं मानना समभिरूढ नय है। एवंभूत नय के तीन प्रकार से लक्षण किये हैं-यः अर्थः येन आत्मना भूतः तं तेन एव निश्चाययति इति एवंभूतः । जो पदार्थ जिस रूप से हुआ है उसको उसी रूप से निश्चय कराना एवंभूत नय है जैसे-जिस समय इन्दन क्रिया परिणत है उसी वक्त इन्द्र है, अन्य कोई क्रिया में परिणत है तो वह इन्द्र नहीं है । येन आत्मना भूतः येन ज्ञानेन परिणत आत्मा तं तेन एव अध्यवसाययति इति एवंभूतः, जिस वस्तु के ज्ञान से आत्मा परिणत है उस आत्मा को उसी रूप मानना जैसे इन्द्र के ज्ञान से परिणत [ इन्द्र को जानने में उपयक्त ] आत्मा खुद ही इन्द्र है । समभिरूढ विषयं यत् तत्त्वं तत् प्रतिक्षणं षट् कारक
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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