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________________ प्रथमोऽध्यायः [ ७१ जायन्ते । ते च परस्परापेक्षा अर्थक्रियाकारिणः । सुनयास्तज्ज्ञैर्यथाख्यानं प्रयुज्यमानाः सम्यग्दर्शनादिहेतवो भवन्ति । पटादिकार्यकारितन्त्वादिवन्नान्यथेत्यलमतिविस्तरेण । ज्ञानदर्शनयोस्तत्त्वं नयानां चैव लक्षणम् । ज्ञानस्य च प्रमाणत्वमध्यायेऽस्मिन्निरूपितम् ।। सामग्रयां वर्तमानं इति एवं भूतेन शब्देन भावनीयं न व्युत्पन्न शब्द वाच्यं इति एवंभूतः समभिरूढ नय का विषयभूत जो तत्त्व है वह प्रतिक्षण छह कारक सामग्री में प्रवर्त्तमान है वही एवंभूत शब्द द्वारा भावनीय है, न कि व्युत्पत्तिरूप शब्द द्वारा वाच्य है । जैसे-मनुष्य नामा पदार्थ मनोर्जातः मनुष्यः ऐसे व्युत्पत्ति-निरुक्ति द्वारा वाच्य नहीं है इत्यादि । अन्वय नय, व्यतिरेक नय, पृथक्त्व नय, अपृथक्त्व नय, निश्चय नय और व्यवहार नय, इसप्रकार नयों के छह भेद इस प्रकरण में भास्कर नंदी ने सोदाहरण कहे हैं। ये सर्व ही नयों के भेद मध्यम रूप से किये गये विस्तार वर्णन में आयेंगे । तथा आलाप पद्धति नय चक्र आदि नय विषयक स्वतन्त्र ग्रन्थों में नयों का बहुविस्तार पूर्वक वर्णन मिलता है। नयों का कथन जैनदर्शन में ही पाया जाता है जैनेतर दर्शनों में नहीं। जिस प्रकार स्याद्वाद और अनेकान्त को जैनेतर दर्शन नहीं मानते, क्योंकि ये नय, स्याद्वाद रूप हैं इनको एकान्त वादी कैसे स्वीकार करें। नयों को समझना, इनकी परस्पर की सापेक्षा समझना ही स्याद्वाद अनेकान्त को जानना मानना है, नयों के ज्ञाता पुरुष हटाग्रही कदाग्रही नहीं होते, कौनसा नय कहां लगाना यह भी बहुत सूक्ष्म तत्त्व है, इसप्रकार नयों की परस्पर की सापेक्षता और नयों को लगाना-नयरूपी चक्र को चलाना या नय समूह में प्रवेश पाना सम्यग्दर्शन का कारण है । जो तीक्ष्ण बुद्धि वाला है उसे इन नयों के स्वरूप आदि को जानकर अपनी श्रद्धा समीचीन करनी चाहिये, और जो अल्प बुद्धि वाले हैं उन्हें यथायोग्य संक्षिप्त रूप से नय स्वरूप जानकर अथवा जो जिनेन्द्रदेव ने कहा है वह मुझे प्रमाण है इत्यादि रूप गहन तत्त्वों के विषय में आज्ञा सम्यक्त्व रूप श्रद्धा करनी चाहिये, यही मुक्ति का कारण है । अस्तु । ज्ञान दर्शनयोस्तत्त्वं नयानां चैव लक्षणम् । ज्ञानस्य च प्रमाणत्वमध्यायेऽस्मिन्निरूपितम् ।।१।। अर्थ- इस प्रथम अध्याय में सर्व प्रथम दर्शन और ज्ञान का कथन किया है, फिर क्रमशः जीवादि सात तत्त्व तथा ज्ञान की प्रमाणता सिद्ध की है अन्त में नयों का वर्णन किया है । इसप्रकार यह प्रथम अध्याय पूर्ण हुआ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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