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________________ ६६ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती गमोऽपृथक्त्वनयः । अस्योदाहरणं-ज्ञानविशिष्टो ज्ञाता नान्यथा क्रोधविशिष्टः क्रोधनो जीवो नान्यथेति । एकसाधनसाध्यविषयो निश्चयः अस्योदाहरणं-स्वात्मानमात्मा जानाति, स्वात्मानमात्मा पश्यति, स्वात्मानमात्मा कुरुते, स्वात्मानमात्मा भुङक्त इति । भिन्नसाधनसाध्यविषयो व्यवहारः । कहां पर हैं ? तो अपने में ही हैं इसप्रकार निश्चय होता है, क्योंकि अन्य वस्तु का अन्य में रहने का अभाव है, यदि ऐसा न माने तो ज्ञानादिगुण और रूपादिगुण आकाश में रहने चाहिये ? किन्तु ऐसा नहीं है । जो पदार्थ जिस रूप से हुआ उसको उसी रूप से निश्चय कराना एवंभूत नय है। जैसे अपने अभिधेय क्रिया से युक्त जो क्षण है उस क्षण में ही वह शब्द प्रयोग युक्त है अन्य काल में नहीं । जैसे-शचीपति जब ही इन्दन क्रियाशील है उसी वक्त इन्द्र है अब वह न अभिषेचक है और न पूजक है । इस नय की दृष्टि से जिस समय चले उस समय गौ है, शयन के समय या खड़ी है उस समय वह गौ नहीं कहलाती । अथवा जिस स्वरूप से हुआ था जिस ज्ञान से परिणत आत्मा उसको उसीप्रकार निश्चय कराना एवंभूत है। जैसे इन्द्र के ज्ञान से परिणत आत्मा ही इन्द्र है, अग्नि के ज्ञान से परिणत आत्मा ही अग्नि है । अथवा समभिरूढ नय द्वारा जो विषय किया गया तत्त्व है वह प्रतिक्षण छह कर्ता कर्म आदि कारक सामग्री से प्रवर्तमान है किन्तु एवंभूतनय वैसा भाव [ पर्याय अथवा क्रिया ] होनेपर उसको विषय करता है यह शब्द की व्युत्पत्ति अर्थ को वाच्य नहीं मानता, अर्थात् समभिरूढ नय इन्दन, शकन आदि क्रिया होवे या न होवे शब्द निष्पत्ति मात्र से उस पदार्थ को वैसा ग्रहण करता है, इन्दन क्रिया है-सभा में शासन रूप ऐश्वर्य युक्त है अथवा नहीं है [ अन्य कार्य में संलग्न है तो भी समभिरूढ नय उसे इन्द्र कहेगा, किन्तु एवंभूत नय इसप्रकार नहीं है वह तो उस २-इन्दन आदि क्रिया के काल में ही इन्द्र आदि कहेगा, मनुष्य नामा अर्थ मनुष्य शब्द का वाच्य नहीं देव नामा अर्थ देव शब्द का वाच्य नहीं है और इन्द्र नामा अर्थ इन्द्र शब्द का वाच्य नहीं है क्योंकि मन से उत्पन्न होना इत्यादि क्रिया उस उस अर्थ में वर्तमान में नहीं है इसप्रकार एवंभूत नय का अभिप्राय रहता है । उक्त नैगमादि नयों में आदि के चार नय अर्थनय हैं, क्योंकि ये शब्दों की व्युत्पत्ति के बिना भी अर्थ का प्रतिपादन करते हैं । शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नय शब्द नय कहलाते हैं, क्योंकि निरुक्ति द्वारा उनके अर्थ के प्रतिपादक हैं। उनमें जो
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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