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प्रथमोऽध्यायः
[ ६५ द्वयतिरेकः । अस्योदाहरणं-सुखेन सुखी, दुःखेन दुःखीति । निर्देशप्रवृत्तिफलैर्द्रव्यपर्यायोर्भेदाधिगमः पृथक्तनयः । अस्योदाहरणं-ज्ञानं ज्ञातैव, ज्ञाता पुनरात्मा ज्ञानं भवत्यन्यच्च दर्शनादिकं स्यात् । क्रोधः क्रोधन एव । क्रोधनस्तु जीवः स्यात्क्रोधो मानादिरूपश्चेति । तयोरेव सदादिनिबन्धनैरभेदाधि
चाहिये इसप्रकार यह नय स्वीकार करता है। सन्तिष्ठते तिष्ठति विरमति रमते इत्यादि क्रियायें सं आदि उपसर्ग के निमित्त से आत्मनेपदी धातु परस्मै पदी बनती है किन्तु शब्द नय उपसर्ग का भेद होने से भेद ही मानता है। इसके द्वारा किया जाता है और यह करता है इन वाक्यों में कारकों का भेद होने से भेद मानने वाला शब्द नय है। उपर्युक्त वाक्यों में लिंग आदि का भेद होने पर भी यदि अर्थ का अभेद-एक अर्थ माना जाता है तो सर्व ही शब्दों का एक ही अर्थ हो जाने का प्रसंग आता है, इसप्रकार शब्द नय की मान्यता है। जो नय शब्द में आरुढ़ तत्त्व के अर्थ को दूसरे शब्द से नहीं मिलाता, पर्याय वाची शब्द से असंसृष्ट अर्थ को रूढ करता है वह समभिरूढ नय है, जैसे जो मनु से पैदा हुआ है वह मनुष्य है, इसप्रकार मनुष्य शब्द इस अर्थ में अधिरूढ हुआ है, उसे मरण के भाव से मनुष्य कहना ठीक नहीं, मरण भाव से तो उसे 'मर्त्य' कहेंगे तथा देवनात् देवः, इसको अब मरण के अभाव से देव ऐसा नहीं कह सकते, मरण के अभाव से, अमरण के भाव से तो वह अमर कहा जाता है इसतरह इस नय का विषय है, अभिप्राय यह कि यह नय एक पदार्थ के पर्यायवाची अनेक नाम स्वीकार नहीं करता, इसका कहना है कि नाम भेद है तो अर्थ भेद अवश्य चाहिये । अथवा नाना अर्थों का उल्लंघन कर एक अर्थ को अभिमुख से ग्रहण करना समभिरूढ नय है, यह अर्थ भेद से शब्द भेद को मानता है इसीको बतलाते हैं-वाणी आदि जितने गो शब्द के वाच्यार्थ हैं उतने गो वाचक शब्द भिन्न भिन्न हैं। जैसे पशु पदार्थ में वर्तमान गो शब्द भिन्न है और वाणी आदि अर्थों में होने वाले गो शब्द अन्य अन्य ही हैं । नाना अर्थों का समभिरोहण होने से समभिरूढ है इसतरह भी इस नय का अर्थ है, इसप्रकार की निष्पत्ति करने पर शब्द भेद होने पर अर्थ भेद होना चाहिये ऐसा इस नय का अभिप्राय निकलता है, जैसे शचीपति नामा एक अर्थ-पदार्थ भी इन्दन, शकन, पूरण रूप क्रिया भेद से भेद को प्राप्त होता है । इन्दतीति इन्द्रः । शक्नोति इति शक्रः । पूर्दारणात् पुरंदरः इन्दन क्रिया से इन्द्र ही है, शकन आदि अन्य अन्य पर्याय से व्याप्त शचीपति के तो उपचार मात्र इन्द्र व्यपदेश हो सकता है । अथवा जो जिसमें अभिरूढ है उसके उसीमें अभिमुख होकर वर्तना समभिरूढ है, जैसे आप