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________________ सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती सामग्रयां वर्तमानमित्येवंभूतेन शब्देन भावनीयमेव न व्युत्पन्नशब्दवाच्यमित्येवंभूतः । यथा-न मनुष्यो मनुष्यशब्दवाच्यः । न देवो देवशब्दवाच्यः । नापीन्द्र इन्द्रशब्दवाच्य इति । उक्त षु नैगमादिषु नयेष्वाद्याश्चत्वारोऽर्थनयाः । शब्दव्युत्पत्तिमन्तरेणाप्यर्थस्य प्रतिपादकत्वात् । इतरे शब्दसमभिरूद्वैवंभूता नयाः शब्दनया निरुक्तया तेषामर्थस्य प्रतिपादकत्वात् । तत्रार्थनया अपि द्रव्यार्थपर्यायार्थविकल्पाद्वेधा। द्रव्यार्थोऽपि शुद्धाशुद्धभेदावेधोक्तः तत्र शुद्धः सन्मात्रसंग्रहः सकलोपाधिरहितत्वात् । नैगमव्यवहारौ पुनरशुद्धौ सविशेषणस्य सत्त्वस्याभिसन्धानात् । तथर्जु सूत्रः पर्यायार्थः । स च शुद्धत्वेनोक्त एव । उक्ता नैगमादयः । इदानीं नैगमादिवद्रव्यार्थिकपर्यायाथिकभेदानेव पुनः प्रकारान्तरेणान्वयव्यतिरेकपृथक्त्वापृथक्त्वनिश्चयव्यवहारनयान्सलक्षणोदाहरणान्कथयामः । सर्वत्राविकल्पानुगमनादन्वयः । अस्योदाहरणं-अस्तित्वेनास्त्यात्मा ज्ञातृत्वेन ज्ञातेति । उत्पादव्ययोत्कर्षाविकल्पानुगमना से है । स्थूल स्वभाव रूप स्थूल ऋजुसूत्र नय है जैसे मनुष्य पर्याय रूप मनुष्य है, देव पर्याय रूप देव है । इसप्रकार एक वर्तमान समयवर्ती पर्याय का ग्राहक सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय है और स्थूल-व्यञ्जन पर्याय का ग्राहक स्थूल ऋजुसूत्र नय है। उसी ऋजसूत्र-नय के विषय को लक्षण-सिद्ध शब्द द्वारा कहता है वह शब्द नय है। जैसे मनु से जो हुआ है अथवा नाम कर्म से उत्पन्न हुआ है वह मनुष्य है। दीव्यति-क्रीड़ा करता है वह देव है । अथवा लिंग, संख्या, साधन, काल, उपसर्ग और कारकों के भेद से भिन्न भिन्न अर्थ का प्रतिपादन करता है वह शब्द नय है, जैसे पुष्य, तारका और नक्षत्र इनमें लिंगभेद [ पुष्य पुलिंग, तारका स्त्रीलिंग नक्षत्र नपुसक लिंग ] होने से विभिन्न अर्थों को मानना । “सलिलं" यह एक वचन है और "आपः" यह बह वचन है इनमें संख्या भेद होने से एक ही जल अर्थवाले शब्दों के होने पर भी भेद मानना इस नय का अभिप्राय है । “एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यति यातस्ते पिता" ये संस्कृत के मित्र की मजाक रूप वाक्य हैं इसमें 'मन्ये' क्रिया का प्रयोग 'यास्यसि' क्रिया का प्रयोग व्याकरण दृष्टि से या व्यवहार दृष्टि से युक्त है किन्तु शब्द नय साधन भेद से अर्थात् उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष और अन्य पुरुष रूप क्रिया के भेद से भेद ही स्वीकार करता है अतः उपर्युक्त एहि इत्यादि वाक्य इस नय से गलत है। विश्व को जिसने देख लिया है वह इसका पुत्र होगा, आगामी कार्य था इत्यादि रूप काल भेद से भेद मानना, “विश्वदृश्वा" शब्द व्याकरण में विश्वं दृष्टवान् “विश्व को देख चुका ऐसे अतीत काल अर्थ में निष्पन्न होता है उसको “जनिता" इस भविष्यत् क्रिया से जोड़ना शब्द नय की दृष्टि से गलत है, काल का भेद है तो अर्थ में भेद होना
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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