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________________ प्रथमोऽध्यायः [ ६३ गोशब्दवाचका भिन्ना भवन्ति । यथा पशौ वर्तमानोऽन्यो गोशब्दो वागादिषु पुनरन्यश्चान्यश्चेति । अथवा नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढ इत्ययमर्थः । शब्दभेदादाभेद इति । शचीपतिरेकोप्यर्थ इन्दनशकनपूर्दारणभेदाद्भिद्यते । इन्दतीतीन्द्रः । शक्नोतीति शक्रः । पुरं दरयतीति पुरन्दर इति । इन्दनादिन्द्र एव शकनादिपर्यायान्तराक्रान्तस्योपचारेणेन्द्रव्यपदेशात् । अथवा यो यत्राभिरूढस्तस्य तत्रैवाभिमुख्येन वर्तनात्समभिरूढो यथा क्व भवानास्ते स्वात्मनीति निश्चयादन्यस्यान्यत्र प्रवृत्त्यभावात् । यद्यन्योऽन्यत्र वर्तेत तदा ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्ति: स्यात् । योऽर्थो येनात्मना भूतस्तं तेनैव निश्चाययतीत्येवंभूतः । यथा स्वाभिधेयक्रियापरिणतिक्षण एव शब्दो युक्तो नान्यथेति । यथा-यदैवेन्दति तदैवेन्द्रो नाभिषेचको न पूजक इति । यदैव गच्छति तदैव गौर्न स्थितो नापि शयित इति । अथवा येनात्मना भूतो येन ज्ञानेन परिणत आत्मा तं तेनैवाऽध्यवसाययतीत्येवंभूतः। यथेन्द्राग्निज्ञानपरिणत आत्मैवेन्द्रोऽग्निश्च कथ्यते । अथवा समभिरूढविषयं यत्तत्त्वं तत्प्रतिक्षणं षट्कारक विशेषार्थ-महासत्ता जिसमें किसी व्यक्ति रूप उपाधि का लव लेश नहीं है ऐसा सत् अस्तित्व मात्र का ग्राहक शुद्ध संग्रह नय है, यह निखालिस अर्थात् उपाधिरहित सत् मात्र को ग्रहण करता है जानता है अतः शुद्ध संग्रह नय कहलाता है, जो अवान्तर सत्ता-व्यक्ति की सत्ता ग्रहण करता है द्रव्यत्व आदि की उपाधि जोड़ता है वह अशुद्ध संग्रह नय है । शुद्ध संग्रह नय संपूर्ण अनंतानंत द्रव्यों को चूंकि सभी सत् रूप ही हैं ग्रहण करता है अतः महाविषय वाला है । अशुद्ध संग्रह नय अवान्तर सत्ताग्राहक है, द्रव्यत्व घटत्व आदि उपाधि का ग्राहक है अतः शुद्ध संग्रह की अपेक्षा अल्प विषय वाला है। संग्रह नय द्वारा ग्रहण किये गये विषय में जो आनुपूर्वी रूप से व्यवहार करता है-भेद रूप से कथन करता है अथवा भेद रूप से जानता है वह व्यवहार नय है, जैसे संग्रह का विषय जो सत् है, वह सत् द्रव्य, गुण और पर्याय रूप तीन भेद वाला है इत्यादि भेदों का ग्राहक यह नय है । जो वस्तु सामान्य शक्ति की अपेक्षा वर्तमान पर्याय को सरल रूप से सूचित करता है जानता है वह ऋजुसूत्र नय है । अतीत नष्ट हो चुका है और भविष्यत् अभी उत्पन्न ही नहीं हुआ है अतः उनमें व्यवहार नहीं होता ऐसा निश्चय है, इसतरह सूक्ष्म ऋजुसूत्र का कथन है एक वर्तमान समय मात्र इस नय का विषय है जैसे जो अनुभव में आ रहा सत् है वह क्षणिक है, इसतरह कहना । समय समूह रूप सत् तो उपचार
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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