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________________ प्रथमोऽध्यायः [ ६७ अस्योदाहरणं - प्रात्मा परद्रव्यस्वरूपं जानाति पश्यति कुरुते भुङ्क्त े चेति । तथाभूताश्रयविवक्षा निश्चयः । यथा भवतामाधारः ? स्वात्मैव । भूताभूताश्रयविवक्षा व्यवहारः । चेतनाचेतनसमुदयः अर्थ नय हैं उनके द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो भेद हैं । द्रव्यार्थिक के भी शुद्ध और अशुद्ध भेद से दो भेद हैं सकल उपाधि से रहित होने से सत्ता मात्र का ग्राहक शुद्ध संग्रह नय शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहलाता है । नैगम और व्यवहार अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय हैं क्योंकि ये विशेषण की उपाधि से युक्त सत्ता को ग्रहण करते हैं । ऋजुसूत्र नय पर्यायार्थिक नय है वह शुद्धरूप है [ क्योंकि उपाधि रहित है ] इसप्रकार नैगमादि सात नयों का विवेचन किया ।. अब यहां पर नैगमादि नयों के समान द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयों के भेदों को पुनः दूसरे प्रकार से वर्णन करते हैं - अन्वय नय, व्यतिरेक नय, पृथक्त्व नय, अपृथक्त्व नय, निश्चय नय और व्यवहार नय इसप्रकार ये छह नय हैं, इन सबके सलक्षण उदाहरणों को कहते हैं— जो सर्वत्र अविकल्प अभेद रूप से अनुगमन करता है वह अन्वय नय है जैसे आत्मा अस्तित्व रूप से अस्ति है ज्ञातृत्व रूप से ज्ञाता है इत्यादि, इसमें अस्तित्व का अभेद रूप से अन्वय है । उत्पाद और व्यय के उत्कर्ष को अविकल्प अभेद रूप से अनुगमन करना व्यतिरेक नय है, जैसे सुख से सुखी है, दुःख से दुःखी है । निर्देश, प्रवृत्ति और फल द्वारा द्रव्य और पर्याय में भेद का ज्ञान करना पृथक्त्व नय है, इसका उदाहरण- ज्ञान ज्ञाता ही है, ज्ञाता आत्मा को कहते हैं वह आत्मा तो ज्ञान भी होता है और अन्य दर्शन आदि रूप भी होता है । क्रोध क्रोधन ही है, जो कोन है वह जीव है और यह जो जीव है वह क्रोध रूप भी और मान मायादि रूप भी है । उन द्रव्य और पर्यायों में सत् आदि द्वारा अभेद का ज्ञान करना अपृथक्त्व नय है । इसका उदाहरण - ज्ञान विशिष्ट ज्ञाता है अन्य प्रकार से नहीं है । क्रोध विशिष्ट क्रोधन जीव है अन्यप्रकार से नहीं है । साध्य और साधन एक ही विषय भूत है ऐसा स्वीकार करने वाला निश्चय नय है, इसका उदाहरण बतलाते हैं- आत्मा अपनी आत्मा को जानता है । आत्मा अपने आत्मा को देखता है । आत्मा अपने आत्मा को करता है । आत्मा अपने आत्मा को भोगता है । साध्य और साधन को भेद रूप से विषय करने वाला व्यवहार नय है । इसका उदाहरण देते हैं-आत्मा पर द्रव्य के स्वरूप को जानता है, देखता है, करता है तथा भोगता है । अथवा दूसरे प्रकार से निश्चय व्यव
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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