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________________ ६० ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती नैगमादयस्त्रयो द्रव्यार्थिकस्य भेदा: । ऋजुसूत्रादयश्चत्वारः पर्यायार्थिकस्येति ज्ञेयम् । तत्र निगमनं नियतसङ्कल्पनं निगमस्तत्र भवोऽभिप्रायो नैगमः । स च सङ्कल्पमात्रग्राही निष्पन्नग्राहीति चोच्यते । यथा अनिष्पन्नप्रस्थादिसङ्कल्पे प्रस्थादिव्यपदेशाभिप्रायः । अथवा द्वयोर्धर्मयोर्धमिरगोर्धर्मधर्मिणोर्वा गुणप्रधानभावेन विवक्षो नैगमः । नैकं गमो नैगम इति व्युत्पत्तेः । स चोभयावलम्बीत्युच्यते । अत्रापि कस्यचिद्धर्मस्य धर्मिणोवाऽनभिप्रेतत्वादविवक्षायामप्राधान्यमितरस्य तु प्राधान्यं विज्ञेयम् । स चैवं त्रेधा ज्ञायते-अर्थव्यञ्जनपर्यायार्थनैगमः, संग्रहव्यवहारद्रव्यार्थ नैगमः, द्रव्यपर्यायार्थनैगमश्चेति । तत्र सूक्ष्मः क्षणक्षयोऽवाग्गोचरोऽर्थपर्यायार्थो वस्तुनो धर्मः । स्थूलः कालान्तरस्थायी वाग्गोचरो व्यञ्जनपर्यायो - धर्मः । एतद्धर्मद्वयास्तित्वावलम्बी अर्थव्यञ्जनपर्यायार्थनैगमो भवति । संगृह्यमाणो द्रव्यार्थीऽस्तीति व्यवह्रियमाणोऽपि तद्रव्यार्थोस्तीत्येवं धर्मिद्वयास्तित्वावलम्बी संग्रहव्यवहारद्रव्यार्थ नैगमोऽस्ति । द्रव्यार्थोऽस्ति पर्यायार्थोप्यस्तीत्युभयावलम्बी द्रव्यपर्यायार्थ नैगमः कथ्यते । एवं त्रिधाप्ययमवा संग्रह और व्यवहार ये तीन नय द्रव्यार्थिक नय के भेद हैं । ऋजुसूत्र आदि शेष चार नय पर्यायार्थिक नय के भेद हैं । नियत संकल्प को निगम कहते हैं उस निगम में जो होवे वह नैगम है, वह संकल्प मात्र का ग्राहक है अथवा अनिष्पन्न का ग्राहक है । जैसे अनिर्मित प्रस्थ [ एक सेर का माप ] आदि के संकल्प में प्रस्थ नाम का अभिप्राय होता है अर्थात् प्रस्थ नहीं है उसका मात्र संकल्प है उस संकल्प में स्थित प्रस्थ को प्रस्थ कहना नैगम नय है । अथवा दो धर्मों में, दो धर्मी में या धर्म और धर्मी में, गौण और मुख्यता से विवक्षा रखने वाला नैगम नय है, “नैकं गमो नैगमः” इसतरह निरुक्ति है । यह उभयावलम्बी दो धर्म आदि का अवलंबन करनेवाला नय है उभय का अवलम्बन होने पर भी इसमें किसी धर्म की अथवा धर्मी की अनिच्छित होने से या अविवक्षा होने से गौणता होती है और इतर की प्रधानता होती है, ( अर्थात् प्रमाण की तरह दोनों को मुख्य रूप से ग्रहण नहीं करता क्योंकि नय मात्र अंशग्राही होते हैं) इसप्रकार दो धर्म, दो धर्मी और धर्म धर्मी ऐसे तीन प्रकारों को गौण मुख्यता से ग्रहण करनेवाला होने से यह नैगम नय तीन प्रकार का हो जाता है अर्थ व्यञ्जन पर्यायार्थ नैगम, संग्रह व्यवहार द्रव्यार्थ नैगम और द्रव्य पर्यायार्थ नैगम । जो सूक्ष्म है क्षण क्षण में नष्ट होती है और वचन के गोचर नहीं है वह अर्थ पर्याय कहलाती है जो कि वस्तु का धर्म है । जो स्थूल है, कालान्तर स्थायी है वचन के गोचर है वह व्यञ्जन पर्याय कहलाती है, ये दो धर्म-अर्थ पर्याय और व्यञ्जन पर्याय हैं इनके अस्तित्व का अव
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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