________________
५८ ]
सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ ज्ञानविपर्ययवदिति सम्बन्धः । यथा पित्तोद्रेकाकुलितचित्तत्वादुन्मत्तः कदाचित्सुवर्णं सुवर्णत्वेनोपलभते कदाचिदसुवर्णमपि सुवर्णत्वेनोपलभते कदाचिदसुवर्णत्वेनोपलभते यदृच्छयेति तस्य ज्ञानं मिथ्या भवति, तथा मिथ्यात्वकर्मोदयदूषितत्वान्मिथ्यादष्टिरपि कदाचित्सत्सत्त्वेनोपलभते कदाचिदसत्त्वेनोपलभते कदाचित्पुनरसदसत्त्वेनोपलभते कदाचित्सत्वेनोपलभते यदृच्छयेति तस्य विपर्ययात्मकत्वान्मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानं चेति ज्ञानत्रितयमुच्यते । मनःपर्ययकेवलयोस्तु विपर्ययकारणस्य मिथ्यात्वस्याभावात्सम्यग्व्यपदेश एवेत्यलं प्रपञ्चेन । प्रमाणनयैरधिगम इत्युक्तम् । तत्र प्रमाणं व्याख्यातमिदानी नयप्ररूपणं क्रियते
नगमसंग्रहव्यवहार सत्रशब्दसमभिरूढवंभूता नयाः ॥ ३३ ॥ अनेन नयस्य साधारणलक्षणं संक्षेपतो विस्तरतश्च विभागं विशेषलक्षणं च सूत्रयति । श्रुताख्यप्रमाणपरिगृहीतवस्त्वेकदेशो नीयते गम्यते येन यस्मिन्यस्माद्वाऽसौ नयः । तं नयतीति नयः ।
के पदार्थ के ज्ञान में विपर्यय रहता है इसतरह वाक्य संबंध है। इसी का खुलासा करते हैं-जैसे पित्त के उद्रेक से आकुलित चित्त होने से पागल मनुष्य कदाचित् सुवर्ण को सुवर्णपने से जानता है, कभी असुवर्ण को भी सुवर्ण रूप से जानता-मानता है और कभी असुवर्ण को असुवर्ण भी कह देता है, वह तो मनचाहे रूप से ही जानता है, इसतरह उसका ज्ञान मिथ्या होता है। उसी प्रकार मिथ्यात्व कर्म के उदय से दूषित होने के कारण मिथ्यादृष्टि जीव भी कभी सत् को सत् रूप से जानता है, कदाचित् सत् को असत् रूप से और कभी असत् को असत् रूप से एवं कभी असत् को सत् रूप से जानता है अपनी इच्छानुसार चाहे जैसा जानता है, उसके विपरीतता के कारण तीनों ज्ञान मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान स्वरूप हो जाते हैं। मनःपर्यय और केवलज्ञान में विपरीतता का कारण जो मिथ्यात्व है उसका अभाव होने से समीचीनता ही रहती है। अब इस विषय का अधिक कथन नहीं करते ।
प्रमाण और नयों के द्वारा अधिगम होता है ऐसा कहा है इनमें जो प्रमाण है उसका वर्णन पूर्ण हुआ । अब इस समय नयों का कथन करते हैं
सूत्रार्थ-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ एवंभूत ये सात नय हैं । इस सूत्र द्वारा नय का सामान्य लक्षण, संक्षेप से और विस्तार से विभाग तथा इनका विशेष लक्षण इन सबकी सूचना की गई है । श्रुत नाम के प्रमाण द्वारा ग्रहण