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प्रथमोऽध्यायः
[ ५७ गतक्षीरस्य माधुर्यवत् । ननु सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टयोरावलोकनादिके ग्रहणनिरूपणादिकमबिशिष्टम् । तस्मात्कुतो मिथ्यादृष्टेरेव मत्यादिज्ञानानां वितथत्वं प्रतिपाद्यत इत्याह
____ सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ।। ३२ ॥
सर्वं वस्तु स्वद्रव्यक्षेत्रकालभाविद्यमानं सदित्युच्यते। परद्रव्यक्षेत्रकालभावैरविद्यमानमसदिति कथ्यते । सच्चासच्च सदसती। तयोः सदसतोः । अविशेषादविभागेनेत्यर्थः यदृच्छा स्वेच्छा यथेच्छेत्यनर्थान्तरम् । उपलब्धिरुपलम्भो ग्रहणं परिच्छित्तिरित्यर्थः । यदृच्छया उपलब्धिर्यदृच्छोपलब्धिः । तस्या यदृच्छोपलब्धेर्हेतोः उन्मत्तो दत्तूरकादिपानेन मत्त उच्यते । उन्मत्तस्येवोन्मत्तवत् । सदसतोरविशेषेण यथा यदृच्छोपलब्धिस्तस्या हेतोमिथ्यादृष्टेमत्यादिज्ञानविपर्ययो भवत्युन्मत्तस्यार्थ
विपर्यय और अनध्यवसाय रूप से मिथ्या बन जाता है, और सम्यक्त्व के साथ रहने वाला ज्ञान समीचीन हो जाता है, जैसे कि अंदर का कड़वा कड़वा सार भाग जिसका निकाल दिया है ऐसी तुम्बी में रखा हुआ दुग्ध मधुर ही बना रहता है ।
शंका-सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि इन दोनों प्रकार के जीवों के पदार्थों को देखने जानने आदि के होने पर उन पदार्थों का ग्रहण [ धरना, उठाना, रखना आदि ] निरूपण कथन आदि समान रूप से ही होते हैं अतः मिथ्यादृष्टि के ही मतिज्ञानादि को मिथ्यापन है ऐसा किस कारण से कहा है ?
समाधान-अब इसी बात को अग्रिम सूत्र द्वारा कहते हैं
सूत्रार्थ-सत् और असत् की अविशेषता से मनचाही उपलब्धि करने से उन्मत्तपागल पुरुष के समान मिथ्यादृष्टि के ज्ञानों को मिथ्यापना आ जाता है। अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से सभी वस्तु विद्यमान रहती है अतः स्वद्रव्यादि से वस्तु सत् है, परद्रव्य क्षेत्र काल भाव से अविद्यमान होने से उक्त वस्तु असत् है ऐसा कहा जाता है, सत् और असत् इनमें द्वन्द्व समास है । अविशेषात् पद का अर्थ विभाग नहीं होना । यदृच्छा, स्वेच्छा यथेच्छा ये शब्द एकार्थवाची हैं, उपलब्धि का अर्थ परिच्छित्ति या जानना है । “यदृच्छोपलब्धि" पद में तत्पुरुष समास है। धतूरा आदि को पीने से जो मत्त होता है उसे उन्मत्त कहते हैं मिथ्यात्व के कारण जो उस उन्मत्त के समान है सत् और असत् की विशेषता से रहित जो मनमानी उपलब्धि [जानना] है उस कारण से मिथ्यादृष्टि के मति आदि ज्ञानों में विपरीतपना आता है जैसे पागल