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________________ उत्थानिका (संस्कृत)-परमात्मस्वरूप की प्राप्ति की इच्छा करते हुये योगी ने निर्विकल्पस्वरूप परमात्मा को नमस्कार करके उस शुद्धात्मस्वरूप का प्ररूपण किया- ऐसा भाव है। ऐसी आत्मस्थिति की विवक्षा से कहते हैं। खण्डान्वय:-स: वह, आत्मा आत्मतत्त्व, सोपयोगः- उपयोगसहित. अस्ति विद्यमान है; य:जो कि, क्रमाद्-क्रमश: हेतुफलावह: कारण और कार्यरूप है। य: जो, ग्राह्यः-ग्रहण करने योग्य है, अग्राह्य ग्रहण नहीं किया जा सके-ऐसा है; अनाद्यन्त=आदि अन्त से रहित है (तथा) स्थित्युत्पत्ति-व्ययात्मक: स्थिति-ध्रुवता, उत्पत्ति एवं विनाशरूप है। __ हिन्दी अनुवाद (कन्नड़ टीका)-विद्यमान है, कौन (विद्यमान है)? वह आत्मा। वह कैसा है? ज्ञान-दर्शनोपयोग से युक्त है। और फिर कैसा है? कारणकार्यरूप से फल दे रहा है। किस प्रकार से? कमानुगतरूप से, किस कारण से? पूर्व आकार का विनाश, उत्तर आकार की उत्पत्ति और दोनों में द्रव्यत्व की स्थिति रहने के कारण से। और किस प्रकार का है? स्वसंवेदन ज्ञान के गोचर है। और किस प्रकार का है? जिसका आदि-अन्त न हो (ऐसा है)। __ हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका)-जो सोफ्योग अर्थात् ज्ञान-दर्शनोपयोग से सहित, क्रम से, हेतु अर्थात् कारण, फल अर्थात् कार्य इन दोनों को धारण करता है, वह हेतुफलावह' है। (वह) ग्राह्य अर्थात् ज्ञान से जानने योग्य है, ग्राही अर्थात् वस्तुस्वरूप का वेदयिता है। 'अनाद्यन्त' अर्थात् आदि और अन्त जिसके विद्यमान नहीं हैं, वह अनाद्यन्त है। 'स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मक' अर्थात् स्थिति अर्थात् धौव्य, उत्पत्ति अर्थात् उत्पादन, व्यय अर्थात् विनाश – ऐसे स्थिति-उत्पत्ति-विनाश ही जिस आत्मा के स्वरूप हैं, वह स्थित्युत्पत्ति-व्ययात्मक है। वह यह इस प्रकार का स्वसंवेदनप्रत्यक्ष आत्मा है-विद्यमान है। जीव के अभाव को बताने वाले शून्यवादियों के मत का निराकरण कर अप्रतिहत स्याद्वाद-वादी सिद्धान्त के मत के अनुसार उपयोग लक्षण से लक्षित आत्मा का अस्तित्व समर्थित हुआ, ऐसा कहा गया है। विशेषार्थ-यह पद्य वास्तव में 'गागर में सागर' की उक्ति को चरितार्थ करता है। इसमें आत्मा का अस्तित्व, उसका लक्षण, उसके कर्तृत्व-भोक्तत्व, प्रमात-प्रमेयत्व एवं उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मकत्व - इन सबकी मात्र दो पंक्तियों में सिद्धि की गयी है। लौकायत मतवादी (चावकि) चेतनाधिष्ठान आत्मा की स्वतन्त्र वस्तु के रूप 10
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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