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________________ में सत्ता ही नहीं मानते हैं; वे उसे पृथिवी-जल-अग्नि और वायु- इन चार भूतों के संयोग से उत्पन्न अवास्तविक प्रतिभास मानते हैं। जैसे हल्दी और चूना के संयोग से लालिमा उत्पन्न होती है, किन्तु वह लालिमा न तो चूने का स्वरूप है और न ही हल्दी का । वह तो दोनों के संयोगज वर्ण विकार है, वैसे ही वे चैतन्य की चारभूतों से उत्पत्ति मानते हैं। उनकी इस मान्यता का खंडन करने के लिए प्रस्तुत पद्म में "सो आत्मा अस्ति” इस वाक्यांश का प्रयोग किया गया है। : तत्वार्थसूत्रकार ने आत्मा का लक्षण “उपयोगो लक्षणम्" किया है अर्थात् ज्ञानदर्शनात्मक चैतन्य का अनुविधायी परिणाम ही 'उपयोग' है' और यह 'उपयोग' ही आत्मा की वास्तविक पहिचान / लक्षण है। सो आत्मा अस्ति' यह वाक्यांश जहाँ आत्मा के बारे में 'उद्देश कथन करता है, वहीं 'सोपयोगः' यह पद आत्मा का लक्षण बताता है। चूंकि 'उद्देश' एवं 'लक्षण' के कथन के बिना वस्तु का निर्णय नहीं होता है, अतः प्रथमतः आत्मा के विषय में उद्देश एवं लक्षण का कथन किया गया है । कारण और कार्य की मीमांसा में प्रायः भिन्नता में कर्तृत्व के अहंकार एवं परकृत उपकार की दीनता समाविष्ट होती है। किन्तु कारण कार्य का नियामक तत्त्व एक होने की स्थिति में दोनों की संभावना न होकर माध्यस्थ भाव उत्पन्न होता है । जैसे अग्नि 'कारण' और उसकी उष्णता 'कार्य' की स्थिति में अभिन्न अधिकरण है, उसी प्रकार आत्मा और ज्ञान का कारण कार्यत्व भी साम्यभाव का हेतु है । इस कारण कार्य परम्परा के चार स्तर हैं :- (1) निमित्त नैमित्तिक ( 2 ) उपादान - उपादेय, ( 3 ) अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय उत्तरक्षणवर्ती पर्याय तथा ( 4 ) तत्समय की योग्यता पर इनमें से तृतीय स्तर विवक्षित है । अनन्तर कार्यरूप परिणति । यहाँ शुद्धात्मतत्त्व स्वसंवेदनज्ञानगम्य होने से 'ग्राह्य' या 'प्रमेय' रूप है तथा इन्द्रियज्ञान के द्वारा अगम्य होने से 'अग्राह्य' भी है साथ ही स्वपरप्रकाशक - शक्ति के द्वारा परपदार्थों का भी ज्ञान होने से वह उनका 'ज्ञाता' या 'ग्राहक' (ग्राही) भी है। यह त्रिविधत्व आत्मा में अविरोधरूप से युगपत् है । 6 यद्यपि अध्यात्म में पर्यायदृष्टिरहित त्रिकाली ध्रुव आत्मतत्त्व की ही प्रधानता होती है, किन्तु उसका अर्थ कोई सांख्य के पुरुष की भाँति कूटस्थ नित्य पदार्थ के रूप में कोई न निकाल ले, इसलिए अकलंकदेव ने उसे उत्पाद-व्यय-धौष्यात्मक कहकर नित्यानित्यात्मक या द्रव्य - पर्यायात्मक 'सत्" पदार्थ के रूप में बताया है । वस्तूतः इस अनेकान्तदृष्टि के बिना जैनदर्शन की अध्यात्मदृष्टि में जीव का 11 1 -
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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