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________________ देहाकार परिणमनस्वरूप चैतन्य उत्पन्न होता है - "पृथ्व्यादिभूतसंहत्या तथा देह-परीणतेः । मदशक्ति: सुरांगेभ्यो यत्तच्चिदात्मनि।।" (षड्दर्शनसमुच्चय, &4) इस चैतन्य शक्ति का आधार वह पृथिवी आदि चार भूततत्त्वों के विशिष्ट संयोग से उत्पन्न शरीर को मानता है, न कि 'आत्मा' या 'जीव' जैसा कोई स्वतन्त्र तत्त्व । उसका सर्वप्रथम निराकरण करते हुए ग्रन्थकर्ता लिखते हैं - "सोऽस्त्यात्मा" अर्थात् वह 'आत्मा' नामक स्वतन्त्र पदार्थ है, उसके स्वतन्त्र अस्तित्व पर शंका नहीं की जा सकती है। और इसके साथ ही उस आत्मतत्त्व का स्वरूपगत परिचय देते हुए वे लिखते हैं कि 'आत्मा ज्ञानदर्शनात्मक उपयोगरूप पदार्थ है, जो क्रमश: कारण और कार्यरूप होता है। वह स्वसंवदेनज्ञान के द्वारा ग्रहण करने योग्य है तथा रूपी पदार्थ का ग्रहण करने वाले स्थूल इन्द्रियज्ञान के द्वारा उसका ग्रहण असंभव है। अनादि अनन्त होते हुए भी यह सांख्यों की तरह कूटस्थ नित्य नहीं है, इसमें उत्पाद-व्यय और धौव्य-तीनों स्थितियाँ हैं' (पद्य 2)। यहाँ 'उपयोगरूप' कहकर आत्मतत्त्व' का स्वतन्त्र लक्षण बताया गया है। स्वतन्त्र लक्षण का कथन वस्तु की स्वतन्त्र प्रभुसत्ता का द्योतक होता है। इससे चार्वाक की जड़शरीराश्रित चैतन्यवाद की कल्पना खंडित हो जाती है। हितुफलावह: पद का प्रयोग करके वह पुण्य-पापरूप परिणामों का स्वतन्त्र कर्ता एवं उनके फल का भोक्ता बताया गया है। इससे चार्वाक की यह मान्यता कि 'पुण्य-पाप का फल नहीं भोगना पड़ेगा' - स्वत: असत्य सिद्ध हो जाती है। यदि चार्वाक कहे कि "आत्मा जैसी कोई वस्तु है, बताओ कहाँ है? दिखाई क्यों नहीं देती?" तो इसका समाधान है कि वह स्वसंवेदनज्ञान के द्वारा ही ग्रहण किया जा सकता है, रूपी पदार्थ का ग्रहण करने वाले स्थूल इन्द्रियज्ञान के द्वारा नहीं। 'आत्मा' या 'चैतन्य' किसी के संयोग से उत्पन्न होने वाले क्षणिकतत्त्व नहीं हैंयह सूचना 'अनादि अनन्त' विशेषण देता है तथा अनादि अनन्त तत्त्व होते हुए भी उसकी स्वतन्त्र परिणति निरन्तर चलती रहती है - यह बात उत्पाद-व्ययधौव्यरूप' कहकर आचार्यदेव ने कही है। इस प्रकार चार्वाक का नाम एवं उसके सिद्धान्तों का उल्लेख किये बिना ही आचार्य अकलंकदेव ने आत्मतत्त्व के स्वरूप का ऐसा विवेचन ग्रन्थ के द्वितीय पद्य में किया है कि चार्वाक के द्वारा आत्मा के बारे में प्रतिपादित समस्त भ्रामक एवं मिथ्या मान्यताओं का निराकरण हो जाता xxxii
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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