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________________ 1. आत्मा के स्वरूप-विषयक सैद्धान्तिक विवेचन और 2.आत्मस्वरूप की भावना-विषयक आध्यात्मिक वर्णन। __ 1. आत्मा के स्वरूप विषयक सैद्धान्तिक विवेचन- इसमें न्याय का अभिप्राय पूर्णतया समाहित होते हए भी शब्दों में कहीं भी उसे मुखरित नहीं होने दिया गया है। प्रारम्भिक दस पद्यों में आत्मा के जिन धर्मों को विवेचन किया गया है, उन सभी से आत्मा के स्वरूप के बारे में अन्य मतावलम्बियों के द्वारा प्रतिपादित आत्मा के स्वरूपविषयक मिथ्या मान्यताओं का निराकरण होता है। इस वर्णन में जहाँ जैनदर्शन के द्वारा स्वीकृत आत्मतत्त्व के स्वरूप के बारेमें विस्तृत एवं स्पष्ट जानकारी प्राप्त होती है. वहीं यह भी स्पष्ट रूप से पता चलता है कि यह वचन भट्ट अकलंकदेव जैसे प्रकाण्ड न्यायवेत्ता आचार्य के हैं। यहाँ पर महापुराण के कत्ता आचार्य जिनसेन के द्वारा अपने गुरू 'धवला' के प्रणेता आचार्य वीरसेन स्वामी के बारे में कहे गये वे वचन स्मृत हो जाते हैं। जिनमें आचार्य जिनसेन ने वीरसेन स्वामी की उपमा ऐसे पूँछवाले समर्थ बैल से की है, जिनके एक वाक्यरूपी पूँछ हिलाते ही हजारों मक्खियोंरूपी कुवादियों के मतों का निवारण हो जाता था। इसी प्रकार इन प्रारम्भिक दस पद्यों में भटट अकलंकदेव ने प्रत्येक पद्य में अनेक मतवादियों की मान्यताओं का निराकरण किया है, और वह भी किसी का नामोल्लेख किये बिना। लगता है न्यायग्रन्थों का प्रणयन करते-करते अन्पवादियों के मतों के निराकरण का जो अभ्यास अकलंकदेव को हो गया था; उससे वे इस ग्रन्ध में अपने को बचा नहीं पाये और प्रारम्भ में इसका पूरा प्रयोग उन्होनें किया है। किन्तु इतना अवश्य है कि अध्यात्म-शास्त्र की मर्यादा का अनुपालन करते हुए उन्होनें मतान्तरों के उल्लेख एवं पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष शैली से इस ग्रन्ध को मुक्त रखा है। इस सैद्धान्तिक विवेचन में समागत कुछ महत्वपूर्ण बिन्दु इस प्रकार हैं (क) चार्वाकमत समीक्षा - चार्वाक दर्शन के आचार्य बृहस्पति 'आत्मा' मा 'जीव' का स्वतन्त्र वस्तुरूप में अस्तित्व नहीं मानते हैं । वे चार मूलतत्त्व या 'भूत' मानते हैं - पृथिवी, जल, अग्नि एवं वायु - “अत्र चत्वारि भूतानि पृथिवीजलानलानिल: ।" तथा जो जगत् में चैतन्य या चेतना' दिखाई पड़ती है, वह इन चारों के संयोग से उत्पन्न है - "चैतन्यभूमिरेतेषाम्" अर्थात् ये चारों भूत (पृथिवी आदि) मिलकर चैतन्य को उत्पन्न करते हैं। जैसे किन्हीं महुआ आदि मादक पदार्थों से मदशक्ति उत्पन्न होती है, उसी प्रकार पृथिवी आदि चार भूततत्त्वों के विशिष्ट संयोग के Xxxi
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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