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________________ (ख) वैशेषिक मत समीक्षा - वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद हैं, इनका दूसरा नाम 'उलूक' भी था। अत: इस दर्शन को 'काणाद दर्शन' या औलूक्यदर्शन' भी कहा जाता है। यह सात पदार्थ मानता है - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव । 'विशेष' नामक पदार्थ की प्ररूपणा के कारण इसका नाम वैशेषिक' पड़ा। किन्तु इसकी विशिष्ट दार्शनिक परिकल्पना समवाय' नामक पदार्थ या सम्बन्ध है। जैनदर्शन पदार्थ का स्वरूप सामान्यविशेषात्मक ("सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषय;"-परीक्षामुखसूत्र) एवं गुणपर्यायात्मक ("गुणपर्ययवद् द्रव्यम्"-तत्त्वार्थसूत्र) तथा उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक ("उत्पाद-व्यय-धौव्ययुक्तं सत्"- तत्त्वार्थसूत्र) मानता है। जिसके फलस्वरूप द्रव्य से सामान्य (जाति) एव विशेष (व्यक्ति) अभिन्न सिद्ध होते हैं। यधा- जैनदर्शन विशिष्ट जीव पदार्थ एवं उसकी जीवत्व सामान्य जाति अभिन्न मानता है। इसी प्रकार गुण एवं पर्याय (वैशेषिक-कार्य) भी द्रव्य से अभिन्न मानता है, जबकि वैशेषिक इन सबको पृथक्-पृथक पदार्थ के रूप में कल्पित करता है, जो कि वास्तविक नहीं हैं। तथा वैशेषिक अभाव को स्वतन्त्र पदार्थ मानता है, जबकि जैनदर्शन अभाव को वस्तु का ही धर्म मानता है - "भवत्यभावोऽपि हि वस्तुधर्म ।” चूंकि वस्तुत: ये सब चीजें भिन्न-भिन्न उपलब्ध नहीं होती हैं; अत: वैशेषिक को इनके एक संयोजक पदार्थ की परिकल्पना करनी पड़ी, जिसे 'समवाय' नाम दिया गया। जैनदर्शन को द्रव्य से गुण, कार्य, सामान्य, विशेष आदि के कथंचित् भिन्न होने में कोई विरोध नहीं है; किन्तु वैशेषिक तो इन्हें सर्वधा भिन्न मानते हैं। और समवाय से इनका परस्पर संयोजन मानते हैं। अत: इसी समवाय-परिकल्पना की विशेषत: समीक्षा 'आत्मा' के स्वरूपवर्णन के प्रसंग में ग्रन्धकत्ता ने की है। वैशेषिक के अनुसार जीवद्रव्य भिन्न है एवं ज्ञानादिचेतन गुण भिन्न हैं. तथा रनकी मतिज्ञानादि रूप पर्याय भी पृथक् ही हैं । अत: चेतनगुणों के अभाव में आत्मा स्वरूपत: 'अचेतन' हुआ तथा चेतनगुणों के समवाय से 'चेतन' कहा जायेगा। भट्ट अकलंकदेव कहते हैं कि आत्मा में प्रमेयत्वादि सामान्यगुण भी हैं, जो कि अचेतन द्रव्यों (पुद्गल आदि) में भी पाये जाते हैं। चूंकि जैनदर्शन में इन गुणों का अस्तित्व आत्मा में भी माना गया है, किन्तु इनके कारण आत्मा को चेतन नहीं माना गया; अत: इन गुणों की अपेक्षा आत्मा अचेतन है तथा ज्ञानदर्शन आदि चेतनगुणों के कारण आत्मा चेतन' माना गया है। अत: जैनदर्शन में आत्मा को चेतन-अचेतनरूप होना उसके अभिन्न स्वकीय गुणों की अपेक्षा है, जबकि वैशेषिक दर्शन में आत्मा का स्वरूपत: अचेतनपना ज्ञानादि चेतनगुणों की वस्तुगत xxxiii
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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