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________________ चतुर्थोऽधिकारः ६७ यहीं रम्य पत्तन में सेठ सागरदत्त है। वह श्री जिनेन्द्र चरणकमल के सेवन का एक मात्र भ्रमर है ॥ ६८ ॥ श्रावक के आचार से उसकी आत्मा पवित्र है, दान और पूजा से वह सुशोभित है | उसकी सागरना नामक मनःप्रिय प्रिया है ॥ ६९ ॥ सत्र में, इस लोक में वह गृहवास प्रशंसनीय माना जाता है, जहाँ धर्म, गुण और दान में ( पति और पत्नी ) दोनों की मेधा सदा शुभ होती है ॥ ७० ॥ सार रूप कन्या के गुण से विभूषित उन दोनों की यह पुत्री है। कुल का उद्योतन करने में दीपिका के तुल्य यह पुण्य से यौवन युक्त है ॥ ७१ ॥ उसे सुनकर कुमार भी मन में अत्यधिक मोहित हुआ। अथवा लक्ष्मी को देखकर हरि ही यह कामपीडित हो गए ॥ ७२ ॥ अपने महल में आकर शय्या पर पड़ गए । काम से पीड़ित होकर चित्त में देव के समान अत्यधिक स्मरण करने लगे ॥ ७३ ॥ तब उसकी चिन्ता से समस्त कार्यों के साथ अन्न, पान और ताम्बूल को भी भूल गए । कामाग्नि को धिक्कार हो ॥ ७४ ॥ चन्दन, अगुरु, कपूर, पुष्प रूप शीतोपचार उसकी कामाग्नि रूपी कुण्ड घी की आहुति हो गए ॥ ७५ ॥ हे कामिनि ! तुम आओ, इस समय बात करती हुई ठहरो । मृग शिशु के समान नेत्र बाली ! गोद में तुम मेरे सन्तान को दूर करो ॥ ७६ ॥ इत्यादि वृथा वकवाद करते हुए उससे, पिता आदि ने तब पूछा -- पुत्र ! क्या हुआ, सब यथार्थतः कहो ॥ ७७ ॥ पूछे जाने पर भी जब वह नहीं बोला तो पिता के द्वारा पूछे जाने पर कपिल ने समस्त वृत्तान्त आदि से कहा ॥ ७८ ॥ यह ठीक है कि कोई गुप्त कार्य हो या शुभाशुभ कार्य हो, जो मित्र सब कुछ जानता है । वह मित्र सुखदायक होता है ॥ ७९ ॥ अनन्तर पुत्र की पीड़ा को सुनकर उस व्यथा का अभाव करने के लिए वणिक्पति सागरदत्त के घर चला ॥ ८० ॥ सन्तान के समूह के लिए पितर लोग सदा हितकारी होते हैं। जैसे यहाँ पर सूर्य कमलों के समूह का नित्य विकास करने वाला होता है ।। ८१ ।।
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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