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________________ चतुर्थोऽधिकारः ५९ बहु उत्तम बालक कण्ठ में दिव्त्र मोतियों से सुशोभित हुआ। जिस प्रकार चन्द्रमा तारागणों से सुशोभित होता है || १३ || सुखकारी उसके प्रोन्नत भुज स्कन्ध दोनों लोकों की महालक्ष्मी के उत्तम क्रीडा पर्वत के समान शोभित थे ।। १४ ।। सार रूप गम्भीरता का स्थान उनका दया से युक्त परम उदय वाली विस्तीर्ण हृदय सार रूप गम्भीरता के स्थान लवण सागर को जीतता था ।। १५ ।। उसके गुणों के समूह का कथन करने वाले चमकीले दिव्य हार से और मोतियों के समूह के उपकारो हुआ || १६ || घुटनों तक लटकने वाली उसकी दोनों भुजाएँ सुशोभित हो रही थीं। अथवा वे दान से युक्त कल्पवृक्ष की दो दृढ़ डालें थीं ॥ १७ ॥ उसके दो हस्तकमल में दो कड़े चमकीले स्वर्ण निर्मित दो उपयोगों के समान सुशोभित हुए ।1 १८ ॥ सुप्रमाण नाभि से संयुक्त उसका हृदय समस्त दोषों से रहित निधान स्थान के समान अत्यधिक रूप से सुशोभित होता था ।। १९ ।। कटीसूत्र से वेष्टित कटीतट स्वर्णमयी वेदी से युक्त जम्बूद्वीप के स्थल के समान सुदृढ़ रूप में सुशोभित हुआ || २० || शुभ आकार वाला सुदृढ़ उसका जङ्घायुगल कुलगृह के सार रूप उच्च एवं उत्तम स्तम्भद्वय के समान सुशोभित हो रहा था ॥ २१ ॥ सार को समूह रूप उसकी दोनों जंघायें कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने वाले दो बज्र के गोलों के समान शुभ रूप में सुशोभित हुईं ॥ २२ ॥ उसका समस्त भार के समूह को धारण करने वाला जङ्घायुगल था । अथवा अधिक क्या ? उसकी शोभा भव्यों के समूह को सुखप्रद थी || २३ || अच्छी अँगुलियों से युक्त उसके दो पैर सुशोभित हुए । मानों पत्र सहित कमल को जीत कर लक्षण और श्री विराजित थे ॥ २४ ॥ इत्यादिक जगत् के सार स्वरूप, मन को प्रिय लगने वाले उसके रूप का मैं क्या वर्णन करूँ ? जो कि यहाँ आगे तीनों लोकों द्वारा पूजित होगा ॥ २५ ॥
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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