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________________ तृतीयोऽधिकारः समुद्र के देखने से वह सागर भी अधिक गम्भीर होगा । वह श्रावकाचार से पवित्र आत्मा वाला और जिनक्ति परायण होगा । ८२ ।। अग्नि के दर्शन से निश्चित रूप से तुम्हारा पुत्र गुण का सागर होगा और घातिकर्म रूपी धन को जलाकर केवली होगा ।। ८३ ।। इत्यादि कथन को सुनकर पत्नी आदि सहित सेठ प्राप्त पुत्र के समान स्वप्नों का फल सुनकर हृदय में सन्तुष्ट हुआ ।। ८४ || ___वह बुद्धिमान् प्रसन्न होकर मुनिराज का कहा हुआ अन्यथा नहीं होता है, यह विचारता रहता था । सद्गुरुओं का जो विश्वास है, वही सुख का साधन है ।। ८५ ॥ अनन्तर प्रियायुक्त सेठ सज्जनों से घिरा हुआ गुरु को परम प्रीति से नमस्कार कर अपने घर में आकर विशेष रूप से पवित्र जिनोक्त धर्म तथा दान पूजादि को नित्य करता हुआ. प्रसन्नता और सुखपूर्वक घर में रहा ॥ ८६-८७ ॥ अनन्तर तब से लेकर वह सेठानी गर्म के चिह्नों को नित्य धारण करती हुई रत्नवतो पृथ्वी के समान सुशोभित हुई ॥ ८८ || महाशोभा को करने वाली पाण्डुता को उसने मुख में धारण किया । अथवा भाविपुत्र का यश सज्जनों के मन को प्रिय लगता है ॥ ८९ ॥ तब वह उदर में त्रिवली की रचना को धारण करती थी। वह त्रिवली भावी पुत्र के जरा, जन्म और मृत्यु के नाश का सूचक थी ।। ९० ॥ कमलनयनी होती हुई, वह कार्य आदि में मन्दता का सेवन करने लगी। उसने कर कार्यों को छोड़ दिया और मन्द-मन्द बोलने लगी ॥ ९१ ॥ ___बह पात्रदान और जिनार्चा में विशेष दौहृद (दोहलार्गाभणी की इच्छा) धारण करती थी। उस क्षण वह सदा अपने को पुण्यवती अनुभव करती थी ।। ९२।। नव मास बीत जाने पर शुभ नक्षत्र और दिन में उस सुन्दरी ने पुण्य के पुज के समान उत्कुष्ट पुत्र को उत्पन्न किया ।। ९३ ।। पुष्य मास की चतुर्थी को सुख की खान शुक्ल पक्ष में तेज में सूर्य को अथवा कान्ति में चन्द्रमा को जीतने वाले पुत्र को उत्पन्न किया ॥ ९४ ।।
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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