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________________ तृतीयोऽधिकारः इस प्रकार अपने पुण्य के परिपाक से श्रेष्ठिनी, गणशालिनी, सुन्दर आकृति वाली वह सुखपूर्वक मन्दिर में सोयी थी ।। ६८ ।। १ { रात्रि के अन्तिम पहर में उसने स्वप्न में रम्य सुदर्शन मेह और दिव्य कल्पवृक्ष प्रीतिपूर्वक देखा ।। ६९ ॥ . . . ! - 4 -., ... उसने देवताओं के द्वारा सेवन करने योग्य स्वर्गविमान, विस्तीर्ण समुद्र, जलती हुई शुभ अग्नि तथा नष्ट हुए अन्धकार के समूह को देखा ।। ७० || जिन माता के समान उत्तम बुद्धि वाली, सन्तुष्ट हो. प्रातः उठकर, पञ्च नमस्कार मन्त्र का स्मरण कर प्रातःकालीन क्रियाओं को कर विकसित मुखकमल पाती हो नत्र नीर आभूषण को लाकर सुनम्र हो उसने सुख के सूचक अपने स्वप्नों के विषय में श्रेष्ठी को कहा ॥ ७१-७२ ॥ श्रेष्ठी वृषभदास उनको सुनकर हषित हुए । शुभ को सुनकर पृथ्वीतलपर कौन बुद्धिमान् प्रमोदवान् नहीं होता है 1। ७३ ।। सेठ ने कहा कि हे भद्रे ! यद्यपि स्वप्न शुभ हैं, फिर भी हम दोनों जिनमन्दिर जाकर ज्ञानी, तत्त्ववेदी गुरु से पूछे ।। ७४ ।। अनन्तर बन्धुओं से युक्त उन दोनों ने पूजा द्रव्य से युक्त होकर परम आनन्ददायक जिनेन्द्र भवन जाकर विशिष्ट आठ प्रकार की अर्चनाओं से जिनेन्द्र देव की अत्यधिक पूजा कर, स्तुति कर नमस्कार किया । ठीक ही है, भव्यों की इसी प्रकार बुद्धि होती है ।। ७५-७६ ।। ____ अनन्तर वणिक् ने सुगुप्त नामक धर्मदेशक मुनीन्द्र से अत्यधिक प्रीति से प्रणाम कर स्वप्नों का फल पूछा ।। ७७ ॥ ____ तब परोपकार में तत्पर ज्ञानी मुनि ने कहा-हे सेठ ! सुनो। गिरीन्द्र के देखने से सुदर्शन नामक तुम्हारे कुल कमल का सूर्य पवित्रात्मा पुत्र होगा। वह चरमशरीरी, महाधीर, विशुद्ध और शील का सागर होगा ।। ७८-७९ ।। कल्पवृक्ष के देखने से पुत्र लक्ष्मी से सुशोभित, दाता, भोक्ता और दयामूर्ति होगा, इसमें संशय नहीं है ।। ८० ।। यहाँ पर सुरेन्द्र भवन के दर्शन से देवों के द्वारा नत, जगन्मान्य, विचारश, शेय से युक्त और परम उदय वाला होगा ।। ८१ ।। सु०-४
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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