SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृपोक्तिः उन प्रासादों में अनेक भव्यजनों के समूह द्वारा की हुई जय निर्घोष होती रहती है, गीत, यादित्र, पूजादि से युक्त सैकड़ों महोत्सव होते रहते हैं ।। २६ ॥ समस्त भव्यों को परम आनन्द देने वाले वे प्रासाद, तोरण, ध्वज और माङ्गलिक स्वर्ण कुम्भ के समूहों से सुशोभित होते हैं ।। २७ ।। जहाँ पर बनादि में सब जगह ज्ञान लोचन, स्वच्छचित्त मुनीन्द्र तप और ध्यान का उपदेश दिया करते हैं ।। २८ ।। __जहाँ पर बावड़ी, कूप और प्याऊपथिकों की उपकारक हैं । अथवा यहाँ पर सज्जनों की प्रवृत्तियाँ दान, मान और आसनादि से युक्त हैं ।। २५ ।। ___जहाँ पर दानी शक्ति, भक्ति और शुभ उक्तियों वाले हैं। सचमुच वे ही दातार होते हैं, जो प्रिय वचन बोलते हैं ।। ३० ॥ __ उस अङ्ग देश के अत्यधिक मध्य में शुभा चम्पापुरी है | जो वासुपूज्य जिनेन्द्र के जन्म से पवित्र हुई थी ॥ ३१ ॥ ___ जहाँ पर भव्यों के नामों के समूह के समान नाना बड़े-बड़े भवनों का समूह सार रूप सम्पत्ति से भरा हुआ और सुखदायक होकर सुशोभित होता है।॥ ३२ ॥ जहाँ पर जिनेन्द्र भवन अत्यधिक रूप से कुम्भ और ध्वजाओं के समह से नित्य समस्त मनुष्यों और देवताओं को मानों पूजा के लिए आमन्त्रित करता है ।। ३३ ।। वे जिनेन्द्र भवन पृथ्वी पर भव्यों को सुख देने वाले मेरु शिखर के समान सार रूप रत्न तथा सुवर्णादि की प्रतिमाओं से सुशोभित हैं ।। ३४ ।। __ जो घंटाओं को टङ्कार, बाजों के घोष, भव्य जनों के द्वारा की हुई स्तुतियों तथा पूजोत्सवों से भव्यजनों के मनों को अत्यधिक रूप से हरते हैं ॥ ३५ ॥ प्राकार, खाई, अट्टाल तथा तोरण आदि से विभूषित जो कुबेर की सुमनोहर पुरी के समान सुशोभित होती है ।। ३६ ।। - जो अनेक रत्न, माणिक्य, चन्दन और अगुरु रूप वस्तुओं से तथा रेशमी वस्त्रादि से ( कुबेर की) निधियों को भी पराजित करती थी |॥ ३७॥ सम्यक्त्व तथा व्रत से संयुक्त तथा सात व्यसनों से दूर जहाँ भव्य पूर्वपुण्य से धन धान्यों से ।। ३८ ॥ बड़ी-बड़ी जैनी यात्रा और प्रतिष्ठाओं से तथा पात्रदान और जिनेन्द्र भगवान् को अर्चना से अपना हित साधते हैं ॥ ३९॥ .
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy