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________________ द्वितीयोऽधिकारः वह पैंतालीस लाख योजन विस्तीर्ण है । उसकी सुशोभित निर्मल प्रभा चन्द्रमा की कान्ति से स्पी करने वाली है ।। ८० ।। उस पर प्राग्भार नामक पिण्ड आठ योजन विस्तीर्ण है। वह ऐसा मालूम पड़ता है मानों विशिष्ट मुद्रिका के मध्य हीरा जड़ा हो ।। ८२॥ उस पर निश्चित रूप से कुछ कम गध्यति प्रमाण मंगल को प्रदान करने वाले सिद्ध तनुवात पर स्थित हैं। ८२ ।। वे जरा मरण से रहित सिद्ध कर्मों की शान्ति के लिए हों। वे नित्य अपने मन में पूजित, बन्दित और समाराधना के योग्य हैं ।। ८३ ॥ इन सात तत्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। यह मोक्षसुख रूपी वृक्ष का बीज है। उत्तम बुद्धिमानों को इसका पालन करना चाहिए ।। ८४॥ शुभ भाव पुण्य है, यह स्वर्गादि सुख का साधन है । अशुभ परिणाम पाप है, जो कि नरकादि दुःखों को देने वाला है ।। ८५ ।। इस प्रकार लोकस्थिति से युक्त तत्त्वार्थ सद्भाव को, जो कि गौतम स्वामी ने कहा था, सुन कर श्रेपिाक राजा ।। ८६ ।। विस्तीर्ण बारह सभाओं के भव्यों के साथ सन्तोष को प्राप्त हुआ। जहाँ पर श्री गणधर देव वक्ता हों, वहाँ कौन सन्तोष को प्राप्त नहीं होता? ॥ १७ ॥ ___ इस प्रकार इस श्रोमज्जिनेन्द्र के द्वारा कहे हुए उत्तम गणधर के द्वारा कथित जीव और अजीव तत्त्व के लक्षण को सुनकर गुणों के निधि मगधराज श्री श्रेणिक ने भक्तिपूर्वक गुणों की निधि स्वरूप भव्यों के लिए हितकारी उन मुनिनायक की स्तुति कर अत्यधिक नमस्कार किया ॥८॥ इस प्रकार श्री सुदर्शन चरित में पञ्चनमस्कार माहात्म्यप्रदर्शक मुमुक्षु श्री विद्यानन्दि विरचित श्रावकाचार तत्त्वोपदेश व्यावर्णन नामक द्वितीय अधिकार समाप्त हुआ।
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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