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प्रथमोऽधिकारः जहाँ देवाङ्गनार्ये उत्तम वस्त्र और आभरणों से, दान, पूजा आदि गुणों से और नित्य परोपकारादि में जयशील होती हैं ।। ५७ ।।
जहाँ पर भव्यों के पुण्य से कभी भी ईतियों नहीं होती हैं । सूर्य का उदय होने पर सल्य रूप में अन्धकार का समूह नहीं ठहरता है ।। ५ ।।
जहाँ पर रत्नत्रय से सुशोभित मुनिगण वनादि में तत्त्वज्ञानों से, ताप और ध्यानों से स्वर्ग और मोक्ष को जाते हैं ।। ५२ ।।
इत्यादि सम्पदाओं के सार रूप उस मनोहर देश में इन्द्रनगरी के तुल्य राजगह नामक नगर है।। ५३ ।।
वह अनेक प्रकार के भवनों से युका, तीन सालों से सुशोभित, रत्नादि निर्मित तोरण से युक्त तथा गोपुर द्वार से युक्त है ।। ५४ ।।
जिसके चारों ओर स्वच्छ जल से भरी हुई खाइयों पयों के समूह से सुशोभित पवित्र स्वर्ग गङ्गा के समान सुशोभित हैं || ५५ ।।
अथवा जो पुर जिनदेवादि प्रासाद को ध्वज पंक्तियों से अपनी शोभा से सन्तुष्ट हुए मनुष्य और देवों को जहाँ पर बुलाता है ।। ५६ ।। ___ अथवा जहाँ नाना रत्न, सुवर्ण आदि मणि और माणिक्य आदि वस्तुओं से भरी हुई सज्जनों को आनन्द देने वाली वस्तुयें रखी जाती हैं ।। ५७ ।।
वहाँ पर क्षत्रियों का शिरोमणि, राजविद्याओं से संयुक्त, प्रजा के रक्षण में लगा हुआ श्रेणिक राजा था ।। ५८ ॥
शोभा से युक्त अथवा अन्तरङ्ग, बहिरङ्ग लक्ष्मी से विभूषित जिनेन्द्र भगवान् के चरणकमलों का सेवन करने में एकमात्र भ्रमर उसकी आत्मा सम्यक्त्वरूपी रत्न से पवित्र थी और वह भावी तीर्थंकरों में अग्रणी था ।। ५९।।
वह महामण्डलेश्वर राजा अनेक राजाभों से सेवित, दाता, भोक्ता, विचार को जानने वाला तथा वादियों के समूह को धारण करता था ।। ६०॥
वह सप्ताङ्ग राज्य से सम्पन्न, तीन प्रकार की शक्तियों से सुशोभित, छ: प्रकार के शत्रुओं का विजेता तथा पञ्चाङ्ग मन्त्र में उसकी बुद्धि प्रवीण थी ।। ६१॥
उसके राज्य में दो जीर्भे सर्पो में ही थी, प्रजाजनों में नहीं थी। स्त्री के कटिभाग में ही कृशता थी, प्रज्ञा कृश नहीं थी। निर्धनता तपस्वियों में थो, प्रजा धनरहित नहीं थी ।। ६२ ।।