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________________ द्वादशोऽधिकारः अनन्तर श्री सुदर्शन नामक केवलज्ञानी, सत्य रूप में संसार के बन्धु, लोकालोक के प्रकाशक, अपने स्वभाव से पवित्रान्मा, भव्यजनों के पुण्य के उदय से बिना इच्छा के भी संसार के स्वामी अपने वाक्य रूपी अमृत की वर्षा से, भव्य जनों के समूह को नित्य तृप्त करते हुए, सुर और असुरों से पूजित, परम आनन्द को देने वाले विहार को अत्यधिक करके, अपनी आयु के अन्त में स्वामी छत्र चामरादि विभूति का परित्याग कर शेष कर्मों का अय करने के लिए उद्यत हुए ॥ १-४ ।। किसी शुभदेश में जिन निरालम्बन ठहर कर मौन होकर पाँच लघु अक्षरों की स्थिति को प्राप्त कर, उन यतीश्वर अयोमिकेवलो देव ने दो गन्ध, पाँच रस, पाँच वर्षों के आश्रित पाँच प्रकृति वाले, वह स्वामी मुनि पाँच बन्धन, पाँच शरीर, पाँच संघात, छः संहनन, छः संस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, परघात, उपघात, उच्छ्वास, अगुरुलधु, यशःकोति, अनोदय, अशुभ, शुभ, सुस्वर, दुःस्वर, स्थिरत्व, अस्थिरत्व, आठ स्पर्श, एक स्थान निर्माणवाक् , अङ्गोपाङ्ग, अपर्याप्ति, दुःख देने वाली दुर्भग प्रकृति, असातावेदनीय, प्रत्येक शरीर, पाप कर्म करने वाला नीच गोत्र, एक वेदनीय इस प्रकार उपान्त्य समय में बहत्तर प्रकृतियों का समुच्छन्न क्रिया नामक सुध्यान से नाश कर चरम क्षण में आदेयत्व, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, पञ्चेन्द्रिय जाति, अनुत्तरयशःकीर्ति, पर्याप्ति, वस, बादरपना, सुभगफ्ना, मनुष्यायु, उच्चगोत्र, श्रीमतीर्थकरस्य इन तेरह
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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