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________________ दशमोऽधिकारः १८२ भव्य जीवों के द्वारा जो सुपात्रों को आहार, औषधि, शास्त्र आदि दिया जाता है, उसे वैयावृत्य कहते हैं ॥ १२८ ॥ जो वैयावृत्य से विहीन है, उसके समस्त गुण अत्यधिक रूप से चले जाते हैं। सच है, यहाँ पर सूखे तालाब में हंस नहीं रहते हैं ।। १२९ ॥ वे वाचना, पृच्छना, अनुप्रेच्छा, आम्नाय और धर्मोपदेश इस तरह पाँच प्रकार का स्वाध्याय नित्य प्रमाद को छोड़कर करते थे || १३० ॥ जिन उक्तियों के सार रूप शास्त्रों में अत्यधिक आनन्द से भरे हुए वे उन्हें कर्मों की निर्जरा का कारण मानकर उनकी रचना करते थे ।। १३१ ।। स्वाध्याय से शुभा लक्ष्मी और विमल यश होता है, अत्यधिक रूप से तत्त्वज्ञान स्फुरित होता है और केवलज्ञान होता है ॥ १३२ ॥ ही है--- आत्मा ज्ञानस्वभावी है, स्वभाव की प्राप्ति होना अच्युति है। अतः अच्युति की आकांक्षा करता हुआ ज्ञानभावना को भाबित करे || १३३ ॥ वे मेरु के समान निश्चल मुनीन्द्र संवेगपरायण होकर निर्जन प्रदेश में विधिपूर्वक कायोत्सर्ग का आश्रय लेते थे । १३४ ।। चित्त में समस्त वस्तुओं के प्रति वे अमल निर्ममत्व का ध्यान करते थे। वे सोचते थे कि मैं एक शुद्ध चैतन्य हूँ, यहाँ पर मेरा कोई दूसरा नहीं है ॥ १३५ ॥ इस प्रकार की भावना से उनके कर्मों की निर्जरा हो गई। सच है, सूर्य का उद्योत होने पर अन्धकार का समूह तत्क्षण हो चला जाता है ।। १३६ ।। चित्त में इष्ट वस्तु की प्राप्ति की स्मृति अनिष्ट वस्तु के क्षय का चिन्तन, वेदना और निदान, इस प्रकार आर्तध्यान चार प्रकार का होता है ।। १३७ ॥ संरक्षण में चौथे, पांचवें और छठें गुणस्थान तक निश्चित रूप से पशु आदि के दुःख का कारणरूप ध्यान धर्म का निवारण करने वाला है ।। १३८ ॥ पाँचवें गुणस्थान तक हिंसा, झूठ, चोरी तथा विषय उद्भूत ध्यान नरकादि पृथवियों को प्रदान करने वाला है ॥ १३९ ॥ इन दोनों खोटे ध्यानों का स्वामी निश्चित रूप से दुर्गति का कारण है । इसका त्याग करके दयासिन्धु समस्त द्वन्द्वों से गए || १४० ।। रहित हो -
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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