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________________ दशमोऽधिकारः १८७ मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायप्ति से उनकी आत्मा पवित्र थी, वे शील के समस्त प्रभेदों का पालन करते थे और बाईस परीषहों को सहते थे ॥११४|| समग्र बुद्धि वाले वे मम में तपों में मुख्य उत्तम उपवास को कर्म की निर्जरा का हेतु मानकर किया करते थे ।।११५॥ जैसे अष्टाङ्ग शरीरों में मस्तक मुख्य कारण है, उसी प्रकार तक के बाहर भेदों में उपवास मुख्य है ।।११६|| कर्म के समूह का निवारण करने वाले अवमोदर्य तप को स्वामी प्रमाद को दूर करने के लिए तथा स्वाध्याय को सिद्धि के लिए किया करते थे ।।११७॥ वृत्तिपरिसंख्यान नामक तप सन्तोष का कारण है। उसे वे वस्तु, गेह, वन के वृक्ष की गणनाओं से किया करते थे ॥११८|| जिनवाक्य रूपी अमृत के आस्वाद से जिन्होंने अपने मन को विशद बनाया है, परमार्थ को जानने वाले वे धीर रस त्याग रूप तन को तपते धे ॥११॥ __ सुधी बे शील और दया पालन के लिए नित्य पृथ्वी पर विविक्तशय्या और विविक्त आसन का सेवन करते थे ।।१२०।। रति के नाथ कामदेव के उत्कृष्ट वैरी तत्त्व प्रयुक्त उनका निकाल योग से संयुक्त कायक्लेश नामक तप होना था ।।११।। ___ आन्तरिक विशुद्धि के लिए इस तरह छह प्रकार के गाढ़ तप को वे तपते थे । यह तप डरपोकों के लिए सुदुःसह है ।।१२२।। ___ शुद्ध चारित्र वाले उनके कदाचित् प्रमाद होता था तो शास्त्र के अनुसार शल्य का नाशक प्रायश्चित तप होता था ॥१२३।। सदा धर्मवत्सल वे रत्नत्रय मे पवित्र मुनियों को भक्तिपूर्वक विनय करते थे ।।१२४॥ इनके विनय से रत्नत्रय की विशुद्धि होती थी। सभी विद्यायें विनय से विशेष रूप से प्रकट होती हैं ॥१.५।। सच है, कमलों के समूह को सूर्य ही विकसित करने वाला होता है। अतः बुद्धिमानों को सामियों को अत्यधिक रूप से विनय करना चाहिए ॥१२६।। दस प्रकार के उत्तम तपस्वी आचार्य, पाठकादि की अपने हाथ से जो विनय करता है, वह संयमी है ||१२७||
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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