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________________ दशमोऽधिकारः १७ ब्रह्मचर्य निश्चित रूप से सभी का मण्डन है, यतियों का विशेष रूप से मण्डन है । संसार के हितकारी उस ब्रह्मचयं को उन्होंने जन्म से लेकर मोक्ष पर्यन्त धारण किया ।। ५६ ।। जैसे रूप में नासिका, बल में राजा, बेग में घोड़ा शुभ माने जाते हैं उसी प्रकार धर्म में जीवदया, चिस में दान और व्रत में शील शुभ माना जाता है ।। ५७ ।। जीवदया का मूल शील है, वह पापरूपी दावाग्नि के लिए जल है । अपने व्रत को रक्षा करने को सज्जनों ने शील कहा है ।। ५८ ।। ऐसा मानकर उस पवित्र आत्मा मुनीश्वर ने उत्तम गति के साधन शील का सावधानीपूर्वक यत्न से पालन किया || ५९ ॥ क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, थान, शय्यासन, कुप्य और भाण्ड इन बाह्य दस (परिग्रहों का ) स्वामी ने मन, वचन, काय से पहले से ही परित्याग कर दिया। जो शरीर से निस्पृह हैं, वे परिग्रह में रत कैसे हो सकते हैं ।। ६०-६१ ॥ विरुद्ध जिनेन्द्रोक्त जो पाँच प्रकार का मिथ्यात्व है, उसका स्वामी ने व्रत की रक्षा के लिए दूर से परित्याग कर दिया ॥ ६२ ॥ उत्कट स्त्री, पुरुष, नपुंसक तीन वेदों के समान परिग्रह का भी त्याग कर उसका अत्यधिक रूप से परित्याग कर दिया ॥ ६३ ॥ ज्ञान के बल से उन मुनि ने हास्य, रति, अरति, शोक, भय, और वेद इन सातों का मन, वचन, काय से त्याग कर दिया || ६४ ॥ जुगुप्सा कहा भी है- इसलोक भय, परलोक भय, अगुप्तिभय, मरणभय, वेदनाभय आदि जिनवरों ने ये सात भय कहे हैं ।। ६५ ।। आदरपूर्वक पुण्य रूप सार वाली क्षमा रूप जल की धाराओं से वह स्वामी चार कषाय रूपी दावाग्नि का शमन करते थे ॥ ६६ ॥ यह मेरा बान्धव मित्र है, यह दुर्बुद्धि मेरा शत्रु है, इस प्रकार के भाव को त्याग कर वह समबुद्धि स्वतत्त्व में स्थिर रहते थे || ६७ ॥ चौदह प्रकार का अभ्यन्तर परिग्रह रूपी महान ग्रह को, जो कि दुस्त्याज्य है, उसका महामुनि ने त्याग कर लिया था ।। ६८ ।। उन पांच व्रतों की पच्चीस भावनायें हैं। एक एक व्रत की ये पाँचपाँच भावनायें माताओं के समान हितकारी हैं ॥ ६९ ॥
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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