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________________ दशमोऽधिकारः १७७ गृहस्थाचार से पवित्र आत्मा वाले उसने बारम्बार प्रणाम कर हे मुनि ! स्वामिन्! ठहरिए, ठहरिए, इस प्रकार भली-भांति बोलते हुए, प्रासुक जल लाकर उनके चरण धोकर इस प्रकार नव पुण्य और दाता के सात गुणों से युक्त हो, उस सुपात्र के लिए उत्तम आहार दिया । वह (आहार दान) स्वर्ग और मोक्ष सुख रूपी उत्तुङ्ग फल के वृक्ष के सिंचन के तुल्य था । ४२-४४ ॥ समस्त मुनियों ने उसके समान उत्तम पारणा की। अपने स्थान पर आकार अपनी क्रियाओं में सुखपूर्वक स्थित रहे ॥ ४५ ॥ अब से बुद्धिमान् सुदर्शन शुद्ध श्रद्धानपूर्वक गुरु के समीप जिनेन्द्रोक्त समस्त शास्त्र रूपी महान् समुद्र को अपने गुरु के प्रति भक्ति, नित्य प्रसन्नतापूर्वक ग्रन्थ और अर्थ के अनुसार (सीखकर सुखपूर्वक स्थित रहा) | बुद्धिमान् अत्यधिक रूप से (किसी कार्य के) पार हो जाता है । गुरु भक्ति फलप्रद होती है ।। ४६-४७ ।। जो भव्य जीव है, वे उस सुखदायिनी गुरुक्ति को करते है। महाभव्य मन, वचन, काय से शुद्ध होते हैं (और) परम सुख प्राप्त करते हैं ॥ ४८ ॥ अनन्तर तत्त्व ज्ञानियों में श्रेष्ठ वह सर्वशास्त्रज्ञ होकर सब जगह समरत प्राणियों के प्रति दया का पालन करता हुआ, वह मन, वचन, काय के योग से स और स्थावर जीवों के प्रति (दया का पालन करता था) दया को सर्वज्ञों ने धर्म रूपी वृक्ष का मूल कारण कहा है ||४९-५०।। विरोध से रहित सत्य, हित और परिमित वाक्य ( बोलना ) नित्य जिनागम में कहा गया है। उसका बुद्धिमान् लोग मन, वचन, काय से सेवन करते हैं ॥ ५१ ॥ (ऐसा वाक्य ) जैन तात्त्विकों ने जीव दया का कारण कहा है। जिससे इस लोक में सरकीर्ति, सुलक्ष्मी सुया होता है ।। ५२ ।। स्वामी अदत्तविरति (नामक व्रत को ) सर्वथा पाल रहे थे । जो परद्रव्य को ग्रहण करता है, उसके जीवदया कहाँ से हो सकती है ? ॥ ५३ ॥ समस्त पापों का क्षय करने वाले, जगत्पूज्य ब्रह्मचर्य को नव भेदों से वे सावधानीपूर्वक धारण करते थे ।। ५४ ॥ दृढ़ मन वाले उन्होंने स्त्री, नपुंसक और पशु आदि के कुसंग को त्याग दिया था । निर्जन सुबन आदि में वे विरागी सुखपूर्वक रहते थे ।। ५५ ॥ सु०-१२
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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