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नवमोऽधिकारः पाप कर्म से संसारसागर में पड़े हुए जीवों को जो स्वर्ग और मोक्ष से उत्पन्न पद में धारण कराता है । ८४ ॥
वह जिननाथ के द्वारा कथित धर्म दशलक्षण रूप माना गया है। दयालक्षण नाम वाला वह धर्म रत्नत्रयाताक भी है ।। ८५ ॥
कर्मरूपी शत्रुओं से नित्य संसार में भ्रमण करने वाले बुद्धिरूपी धन वाले प्राणी दुर्लभ उसे पाकर ऐसा कोई कार्य नहीं जिसे न कर सकें ॥ ८६ ॥
मुनि और श्रावकों का विषय वह धर्म भो दो प्रकार का कहा गया है। मुनिधर्म दश प्रकार का है। श्वावक धर्म दान, पूजा, व्रत रूप
धर्म से विपुल लक्ष्मी की प्राप्ति होतो है। धर्म से विमल यश को 'प्राप्ति होती है । धर्म से स्वर्ग का उत्तम सुख प्राप्त होता है, धर्म से परम पद की प्राप्ति होती है ।। ८८ ॥
सुखार्थी भव्यों के द्वारा इत्यादि रूप से धर्म का सदभाव जानकर श्रीमज्जिनेन्द्र सद्धर्म का नित्य प्रसन्नतापूर्वक भले प्रकार सेवन किया जाता है ।। ८५ ।।
____ इति धर्मानुप्रेक्षा इस प्रकार महाभव्य शिरोमणि बुद्धिमान् सुदर्शन अनुप्रेक्षाओं का 'चिन्तन कर दीक्षा लेने के लिए उद्यत हो गया ।। ९० ।।
इस प्रकार अत्यधिक रूप से जिनधर्मकर्मचतुर मुणों की निधि, वैराग्य रत्नाकर सेठ अपने मन में शुभ भावना का भली-भाँति ध्यान कर सभी लोगों को क्षमा कर क्षमा से युक्त हो स्वयं भक्तिपूर्वक उन विमलवाहन मुनि को नमस्कार कर दीक्षा लेने के लिए उच्चत हो गया ।। ९१ ।।
इस प्रकार पञ्चनमस्कारमाहात्म्य प्रदर्शक सुदर्शनपरित में श्री विद्यानन्दिविरचित द्वादशानुप्रेक्षा ब्यावर्णन नामक
नवम अधिकार समाप्त हुआ ।