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________________ नवमोऽधिकारः संसार में जन्म, मृत्यु, जरा का सर्वनाश करने वाला अनुत्तर रत्नत्रय भव्य जीवों के शरण योग्य है | अन्य कुछ नहीं ।। १३ ।। इति अशरण अनुप्रेक्षा चार प्रकार की गतियों रूप गड्ढे से युक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पाँच प्रकार के संसार में अनादिकाल से लगे हुए कर्मों के द्वारा वा में किया हुआ जीव चुम्बक के द्वारा आकर्षित लोहे के समान भ्रमण करता है ।। १४-५॥ नारको जीव नरकों में मिथ्यात्व, कषाय और हिंसादि के कारण छेदन, भेदन, शूली आदि पर चढ़ाना आदि कष्ट बहुत समय तक भोगते । हैं । माया पापादि के दोष से वे पशु धनें ताडन, तापन आदि के तीक्ष्ण दुःखों को भोगते हैं ।। १६-१७ ।। पाप कर्म से मनुष्यों में इष्टमित्र का वियोग तथा अनिष्ट का संयोग होता है।। १८॥ पाप के कारण पराधीनता से नित्य दरिद्रता, जन्म, मृत्यु तथा जरा आदि से उत्पन्न दुःख मनुष्यों के नित्य होता है ।। १९ ।। ___अन्त में मिथ्यात्व प्राप्त होने पर देवों के दूसरों की सम्पदा को देखकर मानसिक दुःख होता है ।। २० ।। श्रीमज्जिनेन्द्र के सद्धर्म से विहीन बहुत से लोग इस प्रकार दुःख के भार स्वरूप संसार रूपी वन में भ्रमण करते हैं ।। २१ ।। कहा भी है द्रव्य संसार में एक हो पुद्गल द्रन्य को सबने अनेक बार स्वयं उपयोग कर छोड़ दिया ।। २२ ।। __क्षेत्र संसार में तोनों लोकों के समस्त प्रदेशों में जीव पुनः-पुनः मृत्यु को प्राप्त हुआ ।। २३ ।।। कालसंसार में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी की बह कोई समयावली नहीं है, जिनमें मरकर स्वयं उत्पन्न नहीं हुआ ।। २४ ।। भव संसार में नर, नारक, तिर्यश्च और देवों में चारों ओर से मरकर जीव उत्पन्न हुआ ।। २५ ।। भावसंसार में अनेक बार जीव ने निरन्तर अनेक बार असंख्येय जगन्मात्र भाव ग्रहण कर छोड़ दिए ॥ २६ ॥ इति संसारानुप्रेक्षा
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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