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अष्टमोऽधिकारः
१५५.
जो
की
तुम्हारी
थी वह अपने
शरीर को छोड़कर, पाप रूप अपने कर्म से काशी देश में वाराणसी नगरी में तृण का भक्षण करने वाली भैंस हुई। अनन्तर वह पशु से मरकर श्यामल नामवाले किसी धोबी की यशोमती नामक स्त्रो के गर्भ से चत्सिनी नामक पुत्री हुई। वहां पर अपनी शक्ति से आर्यिका के संग से कुछ पुण्योपार्जन कर यह रूप लावण्य से युक्त तुम्हारी प्रिय प्रागवल्लभा मनोरमा हुई ।। १२६- १२७-१२८-१२९ ।।
वह सर्वोत्कृष्ट सती नित्य दान, पूजा और व्रत में उद्यत रहती है । जैनधर्म की आराधना कर जन्तु पूज्यतम होता है ॥ १३० ॥
गुरु विमलवाहन से इत्यादि भव्य सम्बन्ध सुनकर सेठ सुदर्शन मन में अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ ।। १३१ ॥
जिससे धर्म की कृपा से विशुद्ध प्राणिवर्ग कुगति के गमन से मुक्त हो जाता है, सुगति का संग हो जाता है, निर्मल और भव्यमुख्य हो जाता है, देवदेवेन्द्र से बन्दनीय, संसाररूपो समुद्र के जहाज वह जिनदेव जयशीलहों || १३२ ॥
इस प्रकार पचनमस्कार माहात्म्य प्रदर्शक मुमुक्षु श्री विद्यानन्दिविरचित सुदर्शनचरित में सुदर्शनमनोरमा भवावली
वर्णन नामक अष्टम अधिकार समाप्त हुआ ।